[ प्रकाश सिंह ]: राजधानी दिल्ली के दंगे नियंत्रण में तो आ गए, परंतु एक भारी कीमत चुकाने के बाद। 45 से अधिक व्यक्ति इन दंगों की भेंट चढ़ गए और कितने ही लोगों की संपत्ति और कारोबार का नुकसान हुआ। कुछ को पलायन भी करना पड़ा। पुलिस ने अब तक नौ सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है और 254 एफआइआर दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें 41 आम्र्स एक्ट के अंतर्गत है।

बड़े पैमाने पर दंगा होना दिल्ली और भारत सरकार दोनों के लिए शर्म की बात है

इतने बड़े पैमाने पर दंगा होना दिल्ली और भारत सरकार दोनों के लिए ही शर्म की बात है। सबसे ज्यादा किरकिरी तो दिल्ली पुलिस की हुई। इन दंगों पर बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है। मैं तीन खास पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा। पहला तो यह कि दंगे क्यों हुए? दूसरा, दंगों के लिए किसकी जिम्मेदारी बनती है और तीसरा क्या इसकी तुलना 1984 में हळ्ए सिख विरोधी दंगों से करना उचित होगा? 

दिल्ली दंगों के बीज विधानसभा चुनावों के दौरान पड़े थे

सांप्रदायिक दंगे भारत के इतिहास से जुड़े हैं। समय-समय पर, अलग-अलग क्षेत्रों में किन्हीं कारणों से चिंगारी जब-तब सुलग ही जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली दंगों के बीज हाल में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान पड़े थे। सभी पार्टियों के नेताओं ने गैर-जिम्मेदाराना बयान दिए या यूं कहिए कि खुलकर जहर उगला। राजनीति का स्तर और वह भी दिल्ली में जहां सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे लोग हैं कितना गिर सकता है, यह जमकर देखने को मिला। चुनाव आयोग से यह आशा की जाती है कि वह ऐसे लोगों पर अंकुश लगाए और उनके विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई करे। हालांकि कुछ कार्रवाई अवश्य हुई, परंतु वह दिखावटी थी। उसे प्रभावी नहीं कहा जा सकता।

‘हेट स्पीच’ देना फैशन हो गया, एक केंद्रीय मंत्री हैं जो अनाप-शनाप बोलते रहते हैं

अपने देश में ‘हेट स्पीच’ देना फैशन जैसा हो गया है। एक केंद्रीय मंत्री हैं जो आए दिन अनाप-शनाप बोलते रहते हैं, उनकी जुबान पर कोई लगाम नहीं हैं। नेतृत्व से चेतावनी के बाद भी उन पर कोई असर नहीं होता। एक साध्वी हैं जो मूर्खतापूर्ण बयान देने से बाज नहीं आतीं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी में भी बड़बोले नेता भरे पड़े हैं। वे हिंदुओं को नेस्तनाबूद करने की धमकी देते रहते हैं। मुख्यमंत्री स्तर पर भी अजीब-अजीब बयान सुनने को मिलते हैं।

एक मुख्यमंत्री ने जामिया में पुलिस कार्रवाई की तुलना जलियांवाला बाग से कर दी थी

एक मुख्यमंत्री ने जामिया में पुलिस कार्रवाई की तुलना जलियांवाला बाग से कर दी थी। एक अन्य मुख्यमंत्री ने अभी हाल में ही कहा कि इस देश में वही लोग रह सकते हैं जो ‘भारत माता की जय’ बोलें। इन लोगों के मुंह पर पार्टी नेताओं को टेप चिपकाने की जरूरत है। और भी अच्छा होगा यदि इन्हें एक साल के लिए किसी विपश्यना जैसे केंद्र में भेज दिया जाए। इन सभी लोगों के बयानों ने सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ा। 

दिल्ली पुलिस की हीलाहवाली से सांप्रदायिक चिंगारी ने दावानल का रूप ले लिया

अब रही जिम्मेदारी की बात। पुलिस की जिम्मेदारी के बारे में बहुत कुछ कहा जा रहा है। इसमें संदेह नहीं कि पुलिस ने शुरू में हीलाहवाली की, जिसकी वजह से सांप्रदायिक चिंगारी ने दावानल का रूप ले लिया, परंतु बाकी संस्थाओं की जिम्मेदारी का उल्लेख भी आवश्यक है। उपराज्यपाल महोदय, जो गृह मंत्रालय के प्रतिनिधि हैं, उन्होंने क्या भूमिका निभाई? दिल्ली के मुख्यमंत्री, जो भारी बहुमत से जीतकर आए हैं, उनसे और उनकी पार्टी के नेताओं से उम्मीद थी कि वे लोग सड़क पर उतरकर लोगों को शांत करने का प्रयास करेंगे। ऐसा कुछ भी नहीं दिखा।

गृह मंत्रालय के आदेश के अनुपालन में पुलिस निष्क्रिय हो गई थी

सरकारी खजाने से धनराशि तो कोई भी बांट सकता है। केंद्रीय गृहमंत्री के बारे में बहुत कुछ कहा जा रहा है और उनके इस्तीफे की भी मांग हो रही है। इसमें संदेह नहीं कि अंततोगत्वा जिम्मेदारी तो गृह मंत्रालय की ही बनती है, परंतु यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो गृह मंत्रालय केवल नीतिगत निर्देश देता है। रोजाना के कामकाज में आशा यही की जाती है कि वह दखल नहीं देगा। यहां यह कहा जा सकता है कि उनके आदेश के अनुपालन में पुलिस निष्क्रिय हो गई थी। हालांकि सोचने की बात यह है कि कोई गृहमंत्री, अपने होशोहवास में और वह भी जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत में हों तब ऐसी कोई घटना क्यों घटित होते देखना चाहेगा जिससे देश को शर्मसार होना पड़े?

एक दंगाई को पुलिस के जवान पर पिस्तौल तानकर धमकाते हुए पूरे देश ने देखा

यदि पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण किया जाए तो गंभीर घटनाएं 23 और 24 फरवरी को हुई थीं। उन्हीं दिनों शाहदरा के डीसीपी अमित मिश्रा को दंगाइयों ने पीटा, खुफिया ब्यूरो के कर्मचारी अंकित शर्मा की बेरहमी से हत्या की गई और हेड कांस्टेबल रतन लाल को गोली मार दी गई। एक दंगाई को पुलिस के एक जवान पर पिस्तौल तानकर धमकाते हुए पूरे देश ने देखा। वह बड़ी मुश्किल से गिरफ्तार किया जा सका। इन घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार था, इस पर ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।

 जिस पैमाने पर दंगे हुए, उनकी तैयारी बड़े सुनियोजित ढंग से हुई थी

इसी तरह यह भी लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों ने भी दंगे में प्रतिक्रियास्वरूप हिस्सा लिया। सरकारी सूत्रों से बार-बार पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआइ की भूमिका पर भी सवाल उठाया जा रहा है। यह तो स्पष्ट है कि जिस पैमाने पर दंगे हुए, उनकी तैयारी बड़े सुनियोजित ढंग से हुई थी। इसके लिए कौन व्यक्ति, पार्टी या संगठन मुख्य रूप से जिम्मेदार है, उन्हें चिन्हित करने की आवश्यकता है। उचित होगा यदि इस प्रकरण में एक न्यायिक जांच बैठाई जाए ताकि सही तथ्य सामने आ सकें, अन्यथा आरोप-प्रत्यारोप का दौर बदस्तूर चलता रहेगा।

पुलिस को संबल प्रदान किया जाए, उसके कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप न हो

कुछ लोग इन दंगों की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से भी कर रहे हैं। मेरे विचार से यह उनके सीमित ज्ञान का परिचायक है। 1984 में सांप्रदायिक नरसंहार हुआ था, हमले एकतरफा थे। इसके विपरीत 2020 में सांप्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर प्रहार किया। भविष्य के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि पुलिस को संबल प्रदान किया जाए, उसके दिनोंदिन कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप न हो।

सुप्रीम कोर्ट सीएए पर तत्काल विचार करे, अन्यथा इस कानून पर अंतरिम रोक लगा दे

शाहीन बाग से धरना खत्म हो जाना चाहिए और यदि आवश्यकता पड़े तो इसके लिए महिला पुलिस द्वारा न्यूनतम बल प्रयोग किया जाए। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह नागरिकता संशोधन कानून की संवैधानिकता पर तत्काल विचार करे और यदि उसमें विलंब हो तो इस कानून पर फिलहाल अंतरिम रोक लगा दी जाए।

इस समय अंतरराष्ट्रीय माहौल भारत के विपरीत होता जा रहा है, उसे संभालने की जरूरत है

इस समय अंतरराष्ट्रीय माहौल भारत के विपरीत होता जा रहा है, उसे संभालने की जरूरत है। हमें यह भी समझना पड़ेगा कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा इस्लामिक स्टेट और अन्य आतंकी एवं कट्टरपंथी संगठन इस माहौल का लाभ उठाकर आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती खड़ी कर सकते हैं।

( लेखक उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे हैं )