शंकर शरण। देश में जारी आम चुनाव के दौरान मतदान के घटते रुझान पर व्यापक चिंता व्यक्त की जा रही है, जबकि कई लोकतांत्रिक देशों में कम मतदान एक सामान्य परिघटना मानी जाती है। पूर्व की तुलना में घटता मतदान सदैव नकारात्मक नहीं, बल्कि मिले-जुले संकेत भी देता है। इसका सकारात्मक अर्थ इससे भी निकाला जाता है कि लोग बहुत क्षुब्ध नहीं हैं।

सामान्य से अधिक मतदान अक्सर जनाक्रोश से भी उमड़ता है और सत्ता बदल देता है। इसलिए यूरोपीय देशों में सत्ताधारी नेता कम मतदान से नहीं, अपितु अधिक मतदान से आशंकित होते हैं। इसके बावजूद भारत में इस बार मतदान में कुछ मतदाताओं ने यदि उदासीनता दिखाई है तो यह सत्ताधारियों को हल्की चेतावनी भी है कि वे आत्ममंथन करें।

सदैव दूसरों में गलती न खोजें। कम मतदान के मामले को कभी दूसरों की दृष्टि से भी देखना चाहिए। दलों, उम्मीदवारों की गुणवत्ता और उन्हें ही अधिक जिम्मेदार बनाने पर सोचना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि सत्तारूढ़ दल खुद ही ‘चार सौ पार’ के दावे कर रहा हो तो मतदाताओं के एक वर्ग में उनका मत व्यर्थ मानने का भाव आना स्वाभाविक ही है।

घर में आग हमेशा दुश्मन नहीं लगाता, कभी लापरवाही में वह घर के चिराग से भी लगती है। इस बीच मतदान को अनिवार्य करने का विचार भी चर्चा में है। यह अनर्गल विचार है। मतदान न करने का निर्णय भी एक मत है। इसका भी सम्मान होना चाहिए। यही प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी प्रचलित है। मतदान को जबरिया बनाने की बातें जले पर नमक छिड़कने जैसी हैं कि जबरा मारे और रोने भी न दे!

हमारे राजनीतिक दल और नेता कितनी भी क्षुद्रता दिखाएं, लेकिन अपने लिए सबसे तालियां चाहते हैं। दलों द्वारा दुष्प्रचार, आडंबर, सौदेबाजी, भ्रष्टाचार, छल-प्रपंच, एक-दूसरे पर घृणित आरोप आदि के होते उन्हें चुनने के लिए सबसे उत्साहित होने की मांग जबरदस्ती ही है। सुविख्यात कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण का करीब चालीस साल पुराना एक कार्टून है।

उसमें हमारे विभिन्न दलों के नेता एक-दूसरे को विदेशी एजेंट, बिका हुआ, देशद्रोही, चरित्रहीन, भितरघाती और लोभी-लंपट आदि कह रहे हैं। आज का दृश्य क्या बेहतर है? अभी कुछ लोग अपने दल के नारे और अपनी नीतियों के लिए प्रतिद्वंद्वी दल को दोष दे रहे हैं। बरसों से हाल यही है कि कुछ नेता सालों-साल जैसे चुनावी भाषण ही देते रहते हैं। सदैव चुनौती, तैश, शेखी और निंदा से भरी लफ्फाजी। वे विदेश में बोलते हुए भी अपने प्रतिद्वंद्वी दल या नेताओं पर आक्षेप करते हैं।

हमारे नेता कभी भी समाज की विभिन्न आवश्यकताओं, समस्याओं या विवादों पर कोई गंभीर विचार-विमर्श करते हुए नहीं मिलते। मानो जिम्मेदारी लेकर, सबको साथ जोड़कर, कोई रचनात्मक विमर्श उनका काम ही नहीं है। उनका काम तो मानो केवल एक-दूसरे को नीचा दिखाना और मनमाने वादे करना भर है। चुनावी घोषणा पत्र के नाम पर भी कोरी सैद्धांतिक बातें, लच्छेदार वादे या हवा-हवाई बातें। अब तो सीधे लालच देकर मतदाताओं के किसी वर्ग को लुभाने जैसे प्रस्ताव भी आने लगे हैं।

यह भी एक विचित्र दृश्य है कि मूलतः एक जैसी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, वैदेशिक नीतियां रखते हुए भी वे दूसरों की नाहक निंदा करते हैं। जिन नीतियों को स्वयं गलत कहते रहे, स्वयं सत्ता पाने पर वही नीति जमकर चलाते हैं अथवा ऐसे काम करते हैं या घोषणाएं कर देते हैं, जिनका कभी घोषणा पत्र में उल्लेख ही नहीं किया था। फिर, बात-बात में श्रेय लेने की लालसा और तरह-तरह की तिकड़में भिड़ाना। सभी नारे अपनी पार्टी या नेता केंद्रित गढ़ना।

सार्वजनिक स्थानों पर भी केवल दलीय नेताओं के नाम थोपना, चाहे वे स्थान तकनीक, व्यापार, साहित्य, कला या खेलकूद से संबंधित क्यों न हों। राजनीतिक गतिविधियों में नित्य अवसरवादी जोड़-तोड़, गठबंधन करके अपनी पिछली बातों को स्वयं झूठा साबित करते रहना। सालों-साल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालकर फिर गद्दी के लिए मिल जाना। जिन कामों की एकमात्र जिम्मेदारी उनकी है, उससे मुंह चुराकर दूसरों को ललकारना, दोष देना, उलाहना और फटकारना कि सब काम नेता थोड़े ही कर सकते हैं। कुछ जनता को भी करना चाहिए।

यह सब एकतरफापन है, जिसमें केवल दलों और नेताओं की सुविधा का ध्यान रखना ही प्राथमिकता होती है। उदाहरण के लिए, उम्मीदवार एक से अधिक चुनाव क्षेत्र से खड़े हो सकते हैं, लेकिन मतदाता केवल एक ही क्षेत्र में मतदान कर सकता है। जबकि किसी नेता द्वारा दो जगह से चुनाव लड़ने में पहले से तय हो जाता है कि एक पूरे क्षेत्र में फिर मतदान, भारी समय और धन की बर्बादी हो सकती है। यदि विजयी उम्मीदवार ने उस क्षेत्र से जीतकर वहां से त्यागपत्र दे दिया तो लाखों लोगों का मत बेकार जाएगा। जनता को फिर से उपचुनाव में मतदान करना होगा।

जरूरत चुनाव प्रक्रिया को सरल, सस्ता, जिम्मेदार और गुणवत्तापरक बनाने की है। तब स्वत: मतदान अधिक सार्थक होगा और उसके प्रति आकर्षण बढ़ेगा। यह समझना चाहिए कि कम मतदान भी प्रपंची नेताओं, दलों, उम्मीदवारों और उन सबकी बातों के प्रति एक तरह का नकार भाव है। इसलिए, ऐसे राजनीतिक सुधार पर विचार होना चाहिए जिसमें समाज का व्यापक हित हो। सदैव खंडित, स्वार्थी, दलीय, वर्गीय हित के लिए तरह-तरह के प्रपंच से इतर हटकर भी विचार करना आवश्यक है। इसलिए, ऐसा चुनाव सुधार श्रेयस्कर होगा, जो चुनाव प्रक्रिया में बेतहाशा खर्चीलापन रोकने पर ध्यान केंद्रित करे, ताकि हर तरह के योग्य लोगों को प्रोत्साहन मिले।

दलीय मनमानियों पर लगाम लगे। चुनाव प्रचार बिल्कुल संक्षिप्त और संयमित किया जाए, ताकि उसके लिए अधिक धन की जरूरत ही खत्म हो जाए। तमाम आडंबरों पर रोक लगाई जाए। यानी, चुनाव को सरल-सहज, किंतु गंभीर काम बनाया जाए। चाहे कुछ उत्सव-भाव भी रहे, लेकिन महंगे रोडशो जैसा अनावश्यक प्रदर्शन बंद हो। झूठी या निराधार बयानबाजी पर सांकेतिक ही सही, किसी दंड या उत्तरदायित्व की पक्की व्यवस्था बने। संसद और विधानसभाओं की कार्रवाइयों में दलबंदी का खुला प्रदर्शन रोका जाए। हर कहीं स्वस्थ गतिविधियों, जिम्मेदार, सहयोगी और सकारात्मक बातों की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले। उपरोक्त सुधारों पर सभी दलों के गंभीर नेताओं को साथ मिलकर कर सोचना चाहिए। तब चुनावी प्रक्रिया में लोगों की रुचि बढ़ेगी।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)