उमेश चतुर्वेदी। अंतरिम जमानत पर जेल से बाहर आए दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने राजनीति के शांत तालाब में ऐसा पत्थर उछाला है, जिसकी लहरें दूर तक फैल गई हैं। उन्होंने शिगूफा छेड़ा है कि यदि आपने भाजपा को वोट दिया तो अगले वर्ष 75 साल के होने पर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद छोड़कर अपनी जगह अमित शाह की ताजपोशी कराएंगे।

इस बयान के बाद कुछ हलचल सी मची। इस तरह देखें तो नौकरशाह और उसके बाद सामाजिक कार्यकर्ता से नेता बने केजरीवाल राजनीतिक पैंतरेबाजी में पूरी तरह पारंगत हो गए हैं। केजरीवाल जानते हैं कि फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को चुनौती दे पाना आसान नहीं है और उन पर सीधा हमला भी अक्सर आत्मघाती होता है, लिहाजा उन्होंने अमित शाह के बहाने मोदी की गाड़ी को पटरी से उतारने का दांव चला।

केंद्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के विराट उभार के बाद राहुल गांधी जैसे कुछ नेताओं को छोड़ दें तो अधिकांश विपक्षी नेताओं के नुकीले सियासी तीरों के निशाने पर अमित शाह ही रहते हैं। अपने इस दांव से केजरीवाल एक तीर से दो शिकार की कोशिश में लगे हैं। पहला यह कि वह मोदी समर्थकों को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि उनका वोट बेकार जाएगा, क्योंकि मोदी 75 वर्ष से बड़ी उम्र के नेताओं को मार्गदर्शक बनाने की भाजपा की अघोषित नीति का पालन करते हुए सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेंगे।

केजरीवाल दूसरा निशाना भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर लगा रहे हैं, ताकि भाजपा के भीतर मोदी के उत्तराधिकारी को लेकर खींचतान बढ़े। केजरीवाल शायद यह भूल गए हैं कि भाजपा में 75 साल या उससे ज्यादा आयु वाले नेताओं को छूट देने की परंपरा भी है। इसी के तहत बीएस येदियुरप्पा को इस आयु सीमा से छूट देते हुए भाजपा कर्नाटक में मुख्यमंत्री बना चुकी है।

केरल में जीतने के आसार न होने के बावजूद उसने 80 वर्ष से अधिक आयु के ई. श्रीधरन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। केजरीवाल के इस तुर्रे के तुरंत बाद भाजपा के दिग्गज नेताओं ने स्पष्ट किया कि मोदी ही अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। अमित शाह ने तो यहां तक कहा कि आगे भी मोदी ही नेतृत्व संभालते रहेंगे। स्पष्ट है कि मोदी के पीछे एकजुट भाजपा के दिग्गजों की लामबंदी उस अघोषित 75 पार वाले नियम के अपवाद की ही उद्घोषणा है।

जो नेता भाजपा में आंतरिक फूट को बढ़ावा देने की मंशा से कुछ बयान उछाल रहे हैं, वे शायद पार्टी की कार्यप्रणाली और चरित्र से या तो परिचित नहीं या फिर जानने-समझने के बाद भी उससे अनजान बने रहने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा को पहली बार सत्ता की देहरी तक अटल-आडवाणी की जोड़ी लेकर आई थी। पार्टी के इन दोनों दिग्गजों में अद्भुत तालमेल रहा। मुंबई में 1995 में आयोजित अधिवेशन के दौरान जब आडवाणी ने भाजपा की ओर से वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की घोषणा की थी, तब वह वाजपेयी से कहीं अधिक सक्रिय, प्रभावी और लोकप्रिय थे।

इसके बावजूद उन्होंने एक तरह से खुद को वाजपेयी के हनुमान के तौर पर स्थापित किया। 1996 की 13 दिवसीय सरकार का आडवाणी इसलिए हिस्सा नहीं बन पाए, क्योंकि हवाला कांड में नाम आने के चलते उन्होंने खुद चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया था। हालांकि 1998 और 1999 की सरकारों में वह शामिल हुए और उप प्रधानमंत्री रहे। वाजपेयी और आडवाणी एक-दूसरे के पूरक बने रहे। संगठन और सरकार के हित में जिसने भी फैसला लिया, उस पर एक-दूसरे की सहमति रही। सही मायने में दोनों एक-दूसरे के मन की बात समझते थे और सहयोगी भाव से आगे बढ़ते रहे।

मोदी और शाह की जोड़ी भी तकरीबन वैसी ही है। शाह ने खुले तौर पर कभी नहीं कहा कि वह मोदी के हनुमान हैं, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि वही मोदी के सबसे ज्यादा करीबी एवं विश्वासपात्र हैं। मोदी के मन को जितना शाह समझते हैं, उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं एवं एजेंडे को जिस तरह शाह जमीन पर उतारते हैं, वह इसका साक्षात प्रमाण है। भाजपा की मूल वैचारिक नीतियों को अमित शाह ने पूरी तत्परता और कुशलता से धरातल पर उतारा है।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी बनाने की कानूनी और प्रशासनिक कोशिश हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून को पारित कराना या फिर प्रशासनिक मोर्चे पर आतंकवाद एवं नक्सलवाद को नेस्तनाबूद करने की कोशिश, हर मोर्चे पर शाह मोदी के सोच को ही प्रभावी ढंग से जमीनी हकीकत बनाते नजर आते हैं। सांगठनिक स्तर पर भी शाह कई बार कमाल दिखा चुके हैं।

वर्ष 2014 के आम चुनाव में बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित भी उत्तर प्रदेश से भाजपा के 73 सीटें जीतने का अनुमान नहीं लगा पाए थे। उसके पिछले चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा सिर्फ दस सीटें ही जीत पाई थी। ऐसी स्थिति में 73 सीटें जीतना पत्थर पर फूल खिलाने जैसा था, लेकिन यह करिश्मा शाह ने कर दिखाया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी जीत की बड़ी वजह शाह की रणनीति ही रही।

इसलिए भाजपा में भी एक बड़ा तबका ऐसा है, जो उन्हें मोदी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानता है। इसके बावजूद शाह ही मोदी के राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे, अभी ऐसे दावे करना जल्दबाजी ही होगी। संभवत: केजरीवाल भाजपा के इन आंतरिक समीकरणों को समझते हों, लेकिन राजनीतिक बढ़त पाने की चाह क्या न कराए।

चूंकि अमित शाह की छवि कड़क मिजाज और सख्त प्रशासक की है। इस वजह से उनसे देश के कथित संभ्रांत तबके का एक हिस्सा खार खाए बैठा है। ‘मोदी नहीं, बल्कि शाह को जाएगा वोट’ का नैरेटिव इस तबके के सोच को बढ़ावा देने की कोशिश भी कही जा सकती है। याद रहे कि राजनीति में हमेशा दो और दो का जोड़ चार नहीं होता। दो और दो का जोड़ कई बार शून्य भी हो जाता है और कई बार आठ भी। मोदी विरोधी भी इस तथ्य को जानते हैं। फिर भी चुनावी माहौल में अपनी राजनीतिक गोटियां स्थापित करने के लिए अपने तरीके से नैरेटिव फैला रहे हैं, ताकि वोटर बिदके और उनका राजनीतिक मकसद कामयाब हो सके। ‘मोदी नहीं, अमित शाह’ का नैरेटिव इसी राजनीति का विस्तार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)