लोकतंत्र को बदनाम करने की कोशिश, मतदाताओं को रिझाने के लिए गैर जिम्मेदाराना ढंग से कुछ भी कहना प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ
चुनाव आयोग के साथ ईवीएम पर अनावश्यक संदेह कर और सवाल खड़े कर एक तरह का हौवा खड़ा करके आम जन को भयाक्रांत करने के लिए काफी विस्फोटक मसाला पैदा किया जा रहा है। गैर-जिम्मेदाराना ढंग से कुछ भी कहना जनता में भ्रम फैलाता है। यह प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यह व्यवस्था लोकसंभव होती है।
गिरीश्वर मिश्र। जनता द्वारा, जनता का और जनता के लिए शासन के महास्वप्न को साथ लेकर लोकतंत्र की शासन विधा आधुनिक युग में सबसे प्रबुद्ध, व्यावहारिक और विवेकशील सरकार चलाने की पद्धति के रूप में स्वीकार की गई है। लोकतंत्र की व्यवस्था में जनता के चुने प्रतिनिधि या सीधे जनता से चुने लोगों को शासन संभालने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। इसके मूल में ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का ही आदर्श सक्रिय है। सबकी भागीदारी के लिए अवसर देना, जिम्मेदारी और पारदर्शिता के साथ शासन चलाना, शांति और समानता के सिद्धांतों को जमीनी हकीकत बनाने के साथ प्रतिबद्धता लोकतंत्र की जान होती है।
लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है कि जनता से शासन करने के लिए मिली शक्ति की स्वीकार्यता और ठीक-ठीक पहचान बनी रहे। यह भी जरूरी है कि शासन में सत्ता का वितरण विकेंद्रित हो और जनता से सलाह-मशविरा होता रहे। इसमें नियमित रूप से जांच और संतुलन की व्यवस्था भी होनी चाहिए। चुनाव में मतदान से इसकी शुरुआत होती है, इसलिए नियमपूर्वक और समय से चुनाव होने चाहिए। नियमों और कानूनों का पालन होना चाहिए तथा कानून को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए। देश के नागरिकों के सभी मौलिक मानवाधिकारों की सुरक्षा अक्षुण्ण बनी रहे। इस सिलसिले में जीवन की, बोलने की, अभिव्यक्ति की और स्वच्छंद घूमने-फिरने की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना सरकार का बड़ा महत्वपूर्ण दायित्व बनता है।
लोकतांत्रिक शासन के संचालन की दृष्टि से न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया चार प्रमुख आधार-स्तंभ हैं। इनकी संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता अखंड बनी रहनी चाहिए। समानता, समता और बंधुत्व के सिद्धांत भी व्यापक संदर्भ का काम करते हैं जिससे अनुप्राणित होकर ही नियम-कानून बनते हैं, जिनका अनुपालन किया जाना चाहिए। सरकार एक जीवनशैली जैसा उपाय है, जो देश और समाज के स्वस्थ विकास के लिए प्रयुक्त होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने को सुनिश्चित करने में हर स्तर पर समाज की अधिकाधिक जनभागीदारी होनी चाहिए।
वह प्राणवायु की तरह होती है, यदि वह अवरुद्ध हो जाए या उसके साथ छेड़खानी हो तो लोकतंत्र और देश का स्वास्थ्य खराब हो जाएगा। स्वतंत्रता के बाद के भारत के संविधान में पहला संशोधन जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए 1950 में किया गया। संविधान में करीब 80 से ज्यादा संशोधन कांग्रेस के कार्यकाल में किए गए। संविधान की उद्देशिका में बदलाव लाने का भी अभूतपूर्व कार्य किया गया। देश में लोकतंत्र को स्थगित कर आपातकाल लगाना और संविधान को निरस्त करना निश्चय ही लोकतंत्र का गला घोटने जैसा कार्य था। यह भी कांग्रेस का काम था। अनेक राज्य सरकारों को उठाने-गिराने का खेल भी हुआ। अनुच्छेद-370 को लेकर भी कांगेस ने जिस मनोवृत्ति का प्रदर्शन किया, वह संविधान की प्रतिष्ठा के अनुकूल न था।
पिछले कांग्रेसी शासन में घोटालों की धूम मच रही थी और लगातार तुष्टीकरण पर जोर दिया जाता रहा, ताकि वोट बैंक को साधा जा सके। अब पंथ-मजहब को आधार बनाकर आरक्षण की बात और विभिन्न वर्गों को मुफ्त की खैरात बांटने एवं कर्जमाफी के प्रस्तावों के साथ जो बेहिसाब उद्घोषणाएं हो रही हैं, उनका कोई वित्तीय आधार नहीं दिखता। सरकार को पूरे देश के समग्र विकास के लिए सोचना होता है और इस दृष्टि से भी विपक्ष कोई विकल्प नहीं दे पा रहा, सिवाय यह कहने के कि मौजूदा सरकार का कार्य पूरी तरह निरर्थक है।
तथ्य यह है कि आज विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था वाला भारत तीसरे स्थान पर पहुंचने के लिए तत्पर है।
भारतीयों में अब अपनी आस्था, भाषा और सभ्यता-संस्कृति के प्रति हीन भावना नहीं है। भारत के निवासी भारतीय कहलाने में गर्व की अनुभूति करते हैं। भारतवर्ष की आवाज बड़े विश्व समुदाय में सुनी जाती है। गत दिनों राष्ट्रीय हितों की रक्षा और विदेश में रहने वाले हर भारतीय नागरिक की सुरक्षा के अनेक अवसर भी हमने देखे। महिलाओं के सशक्तीकरण, आदिवासी समुदायों के उत्थान, समाज के अंतिम जन को अच्छे जीवन का अवसर मुहैया कराने, शिक्षा को प्रासंगिक बनाने और भ्रष्टाचारमुक्त भारत के लिए कठिन संघर्ष की यात्रा जारी है, पर राजनीतिक हस्तक्षेप और संस्थाओं के संचालन में बाधाएं भी आ रही हैं। इसलिए सब ठीक है, यह नहीं कहा जा सकता।
अगली लोकसभा के गठन के लिए हो रहे चुनाव के लिए प्रचार के माहौल में मतदाताओं को रिझाने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद हर तरह की तरकीबों का उपयोग किया जा रहा है। स्टार प्रचारक सामान्य शिष्टाचार भूलकर जिस तरह दुष्प्रचार कर रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, उसमें बहुत सारा विषवमन भी होता दिख रहा है। लोकतंत्र पर खतरा, संविधान परिवर्तन, लोकतांत्रिक संस्थाओं के हनन और आरक्षण की व्यवस्था को लेकर भय एवं संदेह पैदा करने का प्रयास हो रहा है।
चुनाव आयोग के साथ ईवीएम पर अनावश्यक संदेह कर और सवाल खड़े कर एक तरह का हौवा खड़ा करके आम जन को भयाक्रांत करने के लिए काफी विस्फोटक मसाला पैदा किया जा रहा है। गैर-जिम्मेदाराना ढंग से कुछ भी कहना जनता में भ्रम फैलाता है। यह प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यह व्यवस्था लोकसंभव होती है यानी लोक या समाज के भीतर से उपजने वाली लोक शक्ति ही इसके लिए नियामक होती है। इसको बचाए रखने की जरूरत है। तभी हम सशक्त और समर्थ भारत का निर्माण कर सकेंगे। परिवारवादी और वंशवादी सोच की जगह ‘लोका: समस्ता: सुखिनो भवंतु’ की सर्वसमावेशी कामना ही हमारा ध्येय होना चाहिए।
(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)