मनुष्य में स्वभाव से जीवन में सुख पाने की लालसा होती है। सुख की यह तलाश तमाम तरह के बंधनों और सीमाओं के चलते जटिल और उलझन भरी हो जाती है और उससे छुटकारा पाने के लिए आदमी तरह-तरह की कोशिशें भी करता है। इसके लिए मुक्ति और निर्वाण जैसी स्थितियों की कल्पना की गईं। इन पर होने वाले सोच-विचार में व्यक्ति के आत्मबोध का खास महत्व है। केवल अपने शरीर तक सीमित आत्मबोध की अपर्याप्तता की पहचान बार-बार की जाती रही है। उसे व्यापक से व्यापकतर बनाने पर जोर दिया जाता रहा है। योग, वेदांत, बौद्ध जैसे विभिन्न मत और उनके अनेक संप्रदाय विभिन्न तकरें के सहारे भौतिक जीवन की निस्सारता और उसके परिष्कार से उत्कर्ष की साधना को अपनाने की वकालत करते आ रहे हैं। यह मानना ठीक नहीं होगा कि किसी व्यक्ति के लिए इस तरह का आत्मशोधन समाज से अलग रहकर ही संभव है। आश्रम और पुरुषार्थ जैसी अवधारणाएं व्यक्ति को देश और काल में स्थापित करती हैं। वे उसे समाज के यथार्थ से पलायन की ओर नहीं, बल्कि दायित्वों को अंगीकार करने और उनसे बांधने का काम करती हैं। व्यक्ति या किसी समुदाय का आत्मबोध यानी उसकी अस्मिता केवल उसकी सीमा ही नहीं, बल्कि उसके कृतित्व की अवधारणा और स्वतंत्रता-स्वाधीनता के बोध पर ही टिकी होती है, क्योंकि पराधीनता की स्थिति में किसी भी तरह का अपना नियंत्रण नहीं रहता, सब कुछ पराश्रित हो जाता है। व्यक्ति का अपने ऊपर कोई बस नहीं चलता और कर्ता होने का बोध जाता रहता है। ऐसे ही क्षणों में हिंदी के लोकप्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास को लगा कि पराधीनता में तो सुख की कल्पना ही संभव नहीं है।

यहां पर यह याद रखना बेहद जरूरी है कि स्वतंत्रता किसी भी तरह निरपेक्ष स्वच्छंदता का पर्याय नहीं हो सकती। अगर ऐसा हो तो वह आत्महंता हो जाती है जैसा कि कई देशों में हुआ है। वहां प्रजातंत्र तो आया जरूर पर ठहर नहीं सका। सही अथरें में स्वतंत्रता मिलने के साथ व्यक्ति के साथ दायित्व और कर्तव्य भी जुड़ जाते हैं। आत्मनियंत्रण और लगातार चौकसी के अभाव में स्वतंत्रता की परिकल्पना अधूरी ही रहेगी। हम खुद को आज स्वतंत्र्योत्तार युग का वासी मानते हैं। लगता है मानो स्वतंत्रता कालक्रम में एक बिंदु था, न कि कोई सतत अनुभव। ऐसा लगता है मानो पश्चिमीकरण की स्वाभाविक नियति की दिशा में आगे बढ़ती हमारी यात्रा में राजनीतिक स्वतंत्रता महज एक पड़ाव थी। आज भाषा, व्यवहार और विचार के दायरे से स्वतंत्रता, स्वाधीनता लगभग बाहर सी ढकेल दी गई है। कभी-कभी लगता है कि स्वायत्ताता, आत्मगौरव और आत्मबोध की जगह हम अंग्रेजी राज के उत्ताराधिकारी बनकर रह गए हैं। वैश्वीकरण के दबाव में हम मान बैठे हैं कि पश्चिमी सभ्यता अकाट्य और अपरिवर्तनीय यात्रा-पथ और भविष्य है। राजनीतिक रूप से स्वाधीन होकर भी आज हम आत्मसंशय से ग्रस्त, भारतीयता केबारे में अस्पष्ट, ज्ञान-विज्ञान के आयातक और अपनी जड़ों से कटते चले गए हैं। गांधीजी का हिंद स्वराज हमारी रीति-नीति से कब का हाशिये पर जा चुका है।

बौद्धिक चर्चाओं में जिस अमूर्तीकृत भारतीय जीवन का विश्लेषण हो रहा है, वह साम्राच्यवादी आधार पर भी अप्रासंगिक है और केवल आरोपित दृष्टि को ही प्रोत्साहित कर रहा है। वह न ज्ञान से जुड़ रहा है, न समाज से और न ही कोई वैकल्पिक दिशा या राह ही ढूंढ़ पा रहा है। स्वदेशी या देशज विचार उपयोगी हो सकते हैं पर इसके लिए जो संकल्प और इच्छाशक्ति चाहिए वह विरल होती जा रही है और जो प्रयास हो भी रहे हैं वे अधकचरे और बेमन से हो रहे हैं। वस्तुत: स्वतंत्रता एक मूल्य है, जीवन से भी बड़ा मूल्य। धरती पर मनुष्य ही अकेला जीव है जिसके लिए उसका शारीरिक और भौतिक जीवन नाकाफी या अपर्याप्त होता है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के बल पर इसके पार भी झांक पाता है और कुछ मूल्यों या आदशरें का सृजन कर पाता है। मूल्य का जगत संभावना का जगत है और इसका प्रयोजन मनुष्य को राह दिखाना और मार्ग प्रशस्त करना है। मनुष्य आहार, भोजन, निद्रा, भय और मैथुन की पशुवृत्तिायों तक अपने को संकुचित न रख मूल्यों को खोजता है। उन मूल्यों को जिन पर जीवन को भी न्योछावर किया जा सके। मानव जीवन कुछ ऐसे स्पृहणीय लक्ष्यों या चाहतों के तहत संचालित होता है जिन पर कोई बंदिश नहीं होती, सिवाय खुद अपने द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के। प्रतिबंध न हों तो ये चाहतें आदमी को गलत रास्ते पर भी ले जा सकती हैं। इस विवेक के न रहने पर हम पशुवत आचरण करने लगते हैं और तात्कालिक भौतिक सुख पाने तक ही अपने आप को सीमित कर लेते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय यानी चोरी न करना, अपरिग्रह यानी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, शुचिता, इंद्रियनिग्रह, धैर्य और क्षमा जैसे गुणों को धर्म के प्राणिमात्र के लिए उपयुक्त या ठीक तरह से व्यवहार के अंतर्गत शामिल कर मनुष्य को बड़ी जिम्मेदारी दी गई। धर्म व्यक्ति को अपने बारे में कम और दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें या सामाजिक जीवन कैसे जिएं इसके बारे में अधिक बताता है।

स्वतंत्रता कभी निरपेक्ष नहीं होती पर इसका गलत अर्थ लगा कर हम स्वच्छंद होते जा रहे हैं और उसका परिणाम लूट-मार, हत्या, घोटालों, त्रासदियों, अत्याचार, व्यभिचार और हिंसा की असंख्य घटनाओं के रूप में आए-दिन हमारे सामने उपस्थित होता रहता है। स्वतंत्रता भी धर्म का ही एक रूप है। सही अथरें में स्वतंत्रता तभी आ सकती है जब हमारा आत्मबोध व्यापक बनेगा और पूरे समाज और समग्र जीवन की चिंता हमारी अपनी चिंता का हिस्सा बनेगी। वैश्वीकरण के दौर में चाह कर भी आज अकेला व्यक्ति और अकेले देश के सुखी जीवन की कल्पना संभव नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का प्रिय भजन भी यही कहता और बताता है कि पराई पीर और दुख को समझने-बूझने वाला मनुष्य ही वैष्णव है। स्वतंत्रता शुतुरमुर्ग जैसे पलायन की नहीं दूसरों के साथ, सबके साथ, लोक के साथ जुड़ने और जोड़ने के उद्यम की अपेक्षा करती है।

[लेखक गिरीश्वर मिश्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं]