पुणे में एक किशोर की ओर से अपने पिता की बिना लाइसेंस और नंबर प्लेट वाली पोर्श कार से दो लोगों को कुचलकर मार डालने की घटना के बाद जो कुछ देखने को मिला, वह कानून एवं व्यवस्था का उपहास ही है। इस किशोर को जिस तरह चंद घंटे में जमानत दे दी गई और जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने भी राहत प्रदान कर दी, वह यही बताता है कि अपने देश में प्रभावशाली लोगों के सामने न्याय कितना असहाय और निरुपाय साबित होता है।

यह घटना यह भी बताती है कि लोग किस तरह नियम-कानून को धता बताकर वाहन लेकर निकलते हैं और किस प्रकार कोई भी उन्हें रोकने वाला नहीं होता। कार से दो लोगों को कुचलकर मारने वाले किशोर के पास ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं था और वह नशे में भी था। स्पष्ट है कि उसे और उसके स्वजनों को इसका कहीं कोई भय नहीं था कि इस तरह नियम-कानून की अनदेखी करने के कारण उन्हें दंड का भागीदार बनना पड़ सकता है।

इस किशोर ने जिन जगहों पर जाकर शराब पी, वहां भी वह उसे बेरोकटोक उपलब्ध करा दी गई, जबकि महाराष्ट्र में शराब पीने की न्यूनतम उम्र 25 वर्ष है। लापरवाही का सिलसिला यहीं नहीं थमा। दुर्घटना के बाद आरोपित किशोर को जमानत मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई।

हालांकि पुलिस ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड से आग्रह किया था कि शराब पीकर गाड़ी चलाने और दो लोगों को मार डालने के इस गंभीर मामले में किशोर के साथ बालिग की तरह व्यवहार किया जाए, लेकिन जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने उसे जमानत देना उचित समझा और दंड के रूप में हादसे पर 300 शब्दों का निबंध लिखने और 15 दिनों तक यातायात पुलिस की सहायता करने का निर्देश दिया। इस विचित्र और परेशान करने वाले निर्णय पर देश भर में यह सवाल उठना ही था कि क्या इस तरह की विशेष सुविधा जानलेवा दुर्घटनाओं को अंजाम देने वाले अन्य लोगों को भी मिल सकती है?

यह तो गनीमत रही कि पुणे की घटना को अंजाम देने वाले आरोपित किशोर के प्रति जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के रवैये को लेकर देश भर में जो आक्रोश उपजा, उसके चलते किशोर को सुधारगृह भेजा गया और उसके पिता के साथ कुछ अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया गया, लेकिन इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इस मामले में सभी दोषी लोगों को कठोर सजा मिलनी चाहिए।

यह सजा जितनी जल्दी मिले, उतना ही अच्छा, क्योंकि तभी कोई नजीर कायम होगी। यह मामला ऐसा है, जिसमें नजीर कायम होनी ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो इस तरह की घटनाएं आगे भी होती रहेंगी। यह घटना केवल पुलिस एवं प्रशासन और न्याय तंत्र को ही सबक सिखाने वाली नहीं, बल्कि उन अभिभावकों को भी सीख देने वाली है, जो किशोरवय के अपने बेटे-बेटियों को वाहन चलाने देते हैं।