शिवकांत शर्मा। चुनाव प्रचार के हाल के चरणों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुछ बयानों पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तत्परता से वीडियो प्रतिक्रिया जारी की, उनसे आमने-सामने की खुली बहस के लिए उत्सुकता होना स्वाभाविक है। उन्होंने प्रधानमंत्री को टीवी पर सीधी बहस की चुनौती भी दी। आम चुनाव में विरोधी पार्टियों के शीर्ष नेताओं के बीच टीवी पर सीधी बहस की परंपरा अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका समेत लगभग हर बड़े लोकतंत्र में मौजूद है।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के अलावा राज्यों के गवर्नरों और सीनेटरों के चुनावों से पहले भी टीवी पर दो से तीन बहसें होती हैं, जिनका आयोजन तटस्थ आयोग द्वारा आमंत्रित नागरिकों के समक्ष कराया जाता है। राष्ट्रपति बाइडन और ट्रंप के बीच कड़वाहट की पराकाष्ठा के कारण पिछले राष्ट्रपति चुनाव में बात ‘शट अप’ और तू-तड़ाक तक पहुंच जाने के बावजूद ये दोनों इस बार के चुनाव में भी दो टीवी बहसों के लिए तैयार हो गए हैं। भारत में अभी तक शीर्ष नेताओं के बीच टीवी पर सीधी बहस की परंपरा नहीं है।

इसके अभाव में नेता अपनी जनसभाओं और मीडिया में एक-दूसरे के बयानों और घोषणा पत्रों के बिंदुओं को मनमुताबिक तोड़-मरोड़ कर पेश करते रहते हैं। ऊपर से इंटरनेट मीडिया पर बातों को मनमाना रंग देने से ऐसा भ्रमजाल बन जाता है, जिसमें मतदाता के लिए विवेकपूर्ण निर्णय ले पाना कठिन होता जा रहा है। इसलिए यदि चुनाव आयोग की देखरेख में शीर्ष नेताओं के बीच टीवी पर एक-दो सीधी बहसों के आयोजन की शुरुआत हो सके तो ज्वलंत मुद्दों पर पार्टियों और उनके नेताओं की सही राय, समाधान और उनकी व्यावहारिकता को समझने में मतदाता की सहायता हो सकती है।

भारत में सीधी टीवी बहसें कराने में दो व्यावहारिक समस्याएं आ सकती हैं। पार्टियों की बड़ी संख्या और बहस में अनुशासन बनाए रखना। पार्टियों की बड़ी संख्या का हल तो राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जनसमर्थन की न्यूनतम सीमा के आधार पर हो सकता है, ताकि तीन से चार उम्मीदवार ही बहस के योग्य साबित हों। इसके बावजूद अनुशासन बनाए रखना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है, क्योंकि सदनों के भीतर नारेबाजी, प्लेकार्ड दिखाना और शोर-शराबा बड़ी आम बात हो चुकी हैं। इसलिए टीवी बहस में अनुशासन बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि एंकर पूरी तरह तटस्थ हों।

सवाल यह है कि सीधी टीवी बहस की सबसे बड़ी जरूरत किसे है? निश्चित रूप से विपक्ष को है। राहुल गांधी सीधी टीवी बहस द्वारा रेखांकित करना चाहते हैं कि वह राष्ट्रीय स्तर के नेता और पीएम पद के दावेदार हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी के लिए सीधी बहस में लाभ कम और जोखिम अधिक है, परंतु चुनाव मतदाता को करना है और यदि उसकी दृष्टि से देखें तो सीधी बहस उसकी कई भ्रांतियों को दूर करने और ऐसे सार्थक मुद्दों को चर्चा में लाने में सहायक हो सकती है, जो आरोपों-प्रत्यारोपों की आंधी में ओझल हो गए हैं।

जलवायु संपदा की रक्षा, आर्थिक संपदा के सृजन के लिए तेज विकास, रोजगार सृजन और शिक्षा में उद्योग और कारोबार की मांग के अनुरूप सुधार ऐसे विषय हैं जिन पर देश ही नहीं पूरी दुनिया का भविष्य निर्भर है। संयुक्त राष्ट्र जल संस्था की हालिया रिपोर्ट के अनुसार गत दो दशकों के भीतर उत्तर भारत का 95 प्रतिशत भूजल निकाला जा चुका है। केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के बड़े जलाशयों में उनकी पूरी क्षमता का एक चौथाई जल ही जमा हो रहा है। दक्षिण भारत के जलाशयों की स्थिति सबसे चिंताजनक है। नदियों का जल स्तर घट रहा है और बढ़ते विकास एवं शहरीकरण के कारण पानी की मांग निरंतर बढ़ रही है।

किसी शहर के नल का पानी साफ किए बिना पीने लायक नहीं बचा है। भारत दुनिया की वायु प्रदूषण राजधानी बन चुका है। विश्व के 30 में से 21 सबसे प्रदूषित शहर भारत में हैं। जलवायु की इस घातक स्थिति की रोकथाम करते हुए उद्योगीकरण और आर्थिक विकास की गति बढ़ाना देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इसके बिना लोगों को रोजगार नहीं मिल सकता। उनका जीवन स्तर नहीं सुधर सकता और शिक्षा में मूलभूत सुधार किए बिना इनमें से कुछ भी नहीं हो सकता, परंतु क्या चुनाव प्रचार में इनमें से किसी भी चुनौती पर गंभीर विचार हुआ है? मीडिया अध्ययन संस्थान यानी सीएमएस की रिपोर्ट के मुताबिक चुनावों में इस बार 1.35 लाख करोड़ रुपये खर्च होने जा रहे हैं। ये कहां से आ रहे हैं? कौन दे रहा है? कोई चर्चा है? एक पक्ष ‘संविधान बदल देंगे’ कहकर डरा रहा है तो दूसरा ‘आपकी संपत्ति अल्पसंख्यकों में बांट देंगे’ कहकर।

जो अंतरराष्ट्रीय मीडिया अमेरिका, यूरोप और जापान के चुनावों के समय आर्थिक नीतियों, पर्यावरण नीतियों और भूराजनीति पर होने वाली बयानबाजी पर कान लगाए रहता है, वही भारत के चुनाव में उनकी कोई चर्चा न होने पर परेशान नहीं होता। जबकि पश्चिम के सारे हित सीधे तौर पर इससे जुड़े हैं कि भारत की आने वाली सरकार कैसी जलवायु नीति, आर्थिक नीति और भूराजनीति अपनाती है और कितनी स्थिर रह पाती है। पूर्व में स्ट्रेट टाइम्स से लेकर पश्चिम में लास एंजलिस टाइम्स तक लगभग हर अखबार और उनसे जुड़े चैनलों की चिंता तानाशाही, बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकों और असंतुष्टों की दबती आवाज को लेकर है। प्रतिरोध की आवाज दबाए जाने की तो चिंता है, लेकिन पार्टियों के भीतर बढ़ती कुनबाशाही और तानाशाही को लेकर कोई चिंता नहीं।

तथ्यों और आंकड़ों से लैस एंकरों द्वारा संचालित सीधी टीवी बहस सच और झूठ की भी कुछ गुत्थियां खोल सकती हैं। लोकलुभावन वादे करने वाले नेताओं से पूछा जा सकता है कि जो वे बांटना चाहते हैं, उसके लिए धन कहां से आएगा? लोगों की गाढ़ी कमाई से एकत्र राजस्व को बांटना अधिक लाभकारी होगा या बुनियादी विकास में निवेश करना? अल्पसंख्यकों के हितों को सर्वोपरि रखना सांप्रदायिक नहीं है तो फिर बहुसंख्यकों के हितों और चिंताओं की बात करना कैसे सांप्रदायिक है? जब संविधान में आरक्षण की व्यवस्था अस्थायी मानी गई है तो उसकी उपादेयता पर विचार करना कैसे संविधान विरुद्ध है? सीधी बहस में ऐसे कुछ असहज करने वाले प्रश्नों के साथ-साथ राजनीतिक चंदे और दलगत लोकतंत्र के ऐसे सवालों पर भी चर्चा हो सकती है, जिनसे हर पार्टी बचकर भागना चाहती है।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)