राहुल वर्मा: हालिया चुनाव परिणाम राजनीतिक दलों के लिए कुछ खट्टे-मीठे अनुभव वाले रहे। राजनीतिक दल अमूमन मीठे अनुभवों को तो बहुत सहजता से लेते हैं, लेकिन खट्टे अनुभव में छिपी सीख को अनदेखा करते हैं। चूंकि आगामी आम चुनाव में बमुश्किल 16 से 18 महीने का समय शेष है और उससे पहले कई राज्यों में नियमित अंतराल पर चुनाव होने हैं तो इस जनादेश के गहरे निहितार्थ हैं। अगले साल की पहली छमाही में कर्नाटक के अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों में चुनाव होने हैं तो दूसरी छमाही में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होंगे। फिर 2024 में लोकसभा के साथ-साथ कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों को गुजरात-हिमाचल के नतीजों की थाह लेकर आगे की रणनीति तैयार करनी होगी।

जहां तक राज्यों की बात है तो उनका गणित अलग है। वहां पार्टियों का राज्य स्तरीय नेतृत्व और सांगठनिक क्षमताओं जैसे अलग-अलग मुद्दे हावी रहेंगे, जिस कारण किसी एक दल का पूर्ण वर्चस्व मुश्किल दिखता है। हिमाचल इसका ताजा उदाहरण है, जहां भाजपा मामूली अंतर से चुनाव हार गई। वहां उसका डबल इंजन का दांव कारगर नहीं रहा, क्योंकि स्थानीय पहलू हावी रहे। वहीं गुजरात का चुनाव राज्य से अधिक राष्ट्रीय विमर्श के आधार पर लड़ा गया, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी का राज्य के साथ जुड़ाव, गुजराती अस्मिता, राष्ट्रवाद और कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों का मुद्दा केंद्र में रहा। दूसरी ओर, हिमाचल में आप के सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो जाना दर्शाता है कि देश के सभी हिस्सों में आप का दिल्ली या पंजाब वाला दांव इतनी आसानी से फलीभूत नहीं हो सकता। उसे इसके लिए जमीन पर लंबे समय तक मेहनत करनी होगी। हालांकि, गुजरात में जिस प्रकार आप का खाता खुला है और उसने अपनी मौजूदगी दिखाई है, उससे वह एक राष्ट्रीय दल बनने की राह पर बढ़ गई है। इस तरह से भी इन चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में महत्व और बढ़ गया है।

भाजपा को भले ही राज्यों के चुनाव में कुछ चुनौती मिल रही हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह प्रतिद्वंद्वी दलों से खासी आगे है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के साथ ही आप के रूप में उसके लिए एक नई चुनौती उभर रही है, जिससे भाजपा विरोधी मतों में बिखराव संभव है, जैसा गुजरात में हुआ। वहीं, हिमाचल के चुनावी रण से अंतिम क्षणों में किनारा करके पलायन कर गई आप के बाद भाजपा और कांग्रेस में सीधा मुकाबला हुआ, जिसमें बेहद करीबी संघर्ष में भाजपा जीतते-जीतते भी हार गई। ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण बहुत कुछ इस पर निर्भर करते हैं कि आप और कांग्रेस में राजनीतिक संघर्ष इसी प्रकार जारी रहेगा या फिर उनमें संघर्ष विराम हो जाएगा। यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि आप अन्य राज्यों में भी कांग्रेस का रास्ता काटती है या नहीं। हालांकि, आप की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए लगता नहीं कि वह कांग्रेस के साथ दोस्ताना संबंध बनाने की राह पर बढ़ेगी।

अन्य क्षेत्रीय क्षत्रपों की बात करें तो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा समय-समय पर हिलोरे मारती हैं, लेकिन वे अपनी सीमाओं से भी भलीभांति अवगत हैं। इन पार्टियों की मूल प्राथमिकता अपने राजनीतिक गढ़ों को बचाए रखने की है। जैसे कि तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक। इन दलों के पास मजबूत संगठन है, लेकिन वे अपनी पूरी ऊर्जा राज्यों में अपना किला बचाए रखने में खर्च करने को तरजीह देंगे। सपा-बसपा जैसे दलों के पास राजनीतिक फलक तो बहुत बड़ा है, लेकिन फिलहाल वे निस्तेज दिखते हैं। वहीं बीजद और वाइएसआर कांग्रेस जैसे दलों की राष्ट्रीय राजनीति में कोई खास रुचि नहीं। ऐसे में यदि आम चुनाव से पहले भाजपा के विरुद्ध कोई राजनीतिक गोलबंदी करनी है तो इन दलों को किसी सहमति पर पहुंचना होगा। अन्यथा 2024 का चुनाव भाजपा-राजग, कांग्रेस, आप और चौथे राजनीतिक धड़े के चतुष्कोणीय पेच में फंसकर रह जाएगा।

मूल रूप से अपने राज्यों तक सीमित दलों के रुख-रवैये को देखते हुए यही आसार अधिक हैं कि आगामी आम चुनाव भाजपा, कांग्रेस और आप के बीच त्रिकोणीय संघर्ष का रूप लेगा। ऐसे में उनकी कार्यप्रणाली को समझने से उनकी संभावनाओं की थाह ली जा सकती है। भाजपा की बात करें तो वह छोटे से छोटे चुनाव के लिए बड़ी मेहनत करने से नहीं हिचकती। यहां तक कि निकाय चुनाव में भी वह अपने नेताओं और संसाधनों को झोंक देती है। इससे उसके विषय में यही धारणा बनती है कि वह प्रत्येक चुनाव को गंभीरता से लेती है और उसे अपनी वैचारिक लड़ाई का मैदान बना देती है। दूसरी ओर, कांग्रेस के पास सशक्त स्थानीय नेतृत्व हो तो वह बाजी पलटने में भी सक्षम है, जैसा हिमाचल में हुआ। वहीं गुजरात में वह हत्थे से उखड़ गई और उसने चुनाव में एक तरह से भाजपा को वाकओवर दे दिया। शायद यह कांग्रेस की राजनीतिक निष्क्रियता ही थी कि उसकी सियासी जमीन पर आप काबिज हो गई।

कांग्रेस के उलट आप चुनाव तो पूरे दमखम से लड़ती है, लेकिन उसके पास वैसा सांगठनिक ढांचा नहीं है, जो राष्ट्रीय स्तर पर दमदार मौजूदगी के लिए आवश्यक है। साथ ही वैचारिक उधेड़बुन भी आप की राह में बड़ी बाधा है। पार्टी कभी खुद को सेक्युलर दिखाने की कोशिश करती है तो कभी हिंदुत्व का सहारा लेती है। उसे समझना होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति बनने के लिए वैचारिक स्पष्टता अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा मतदाता भ्रम और दुविधा के शिकार हो जाते हैं। बहरहाल, हिमाचल में लगभग जीत की देहरी पर ठिठकी भाजपा और गुजरात में उसे मिले ऐतिहासिक जनादेश का संदेश यही है कि 2024 की दौड़ में फिलहाल भाजपा काफी आगे है और उसे पछाड़ने के लिए विरोधी दलों के पास संसाधनों का अभाव तो है ही, साथ ही समय भी उनके हाथ से फिसला जा रहा है। ऐसे में वे जितनी जल्दी इन बाधाओं को दूर करने में सक्षम होंगे, तभी भाजपा का रास्ता रोक पाने में सफल हो सकेंगे।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)