विवेक काटजू। हाल में कई देशों की यात्रा के दौरान तमाम सेवानिवृत्त राजनयिकों, राजनेताओं के साथ ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञों से चर्चा का अवसर मिला। उनसे चर्चा के बाद लगा कि हालिया दौर में भारत की अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ी है और इसके साथ ही देश में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर भी कुछ चिंताएं सामने आ रही हैं। इन चर्चाओं में स्वाभाविक रूप से मैंने जोर देकर कहा कि भारत एक लोकतंत्र है और अभी वहां मानव इतिहास की सबसे बड़ी चुनावी कवायद चल रही है। जब देश में चुनावी प्रक्रिया चल रही हो तो देश को लेकर विदेश में बन रही धारणाओं की थाह लेना काफी उपयोगी सिद्ध होता है।

किसी भी देश की प्रतिष्ठा को मापने के दो प्रमुख मापदंड अहम माने जाते हैं। एक सामरिक शक्ति और दूसरी आर्थिक शक्ति। आवश्यक नहीं कि सामरिक रूप से शक्तिशाली देश को वैश्विक लोकप्रियता मिले, लेकिन उसे एक महत्वपूर्ण देश की प्रतिष्ठा अवश्य मिल जाती है, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका महत्व बढ़ता है। आर्थिक रूप से शक्तिशाली देश की ओर कमजोर आर्थिकी वाले देश मदद की उम्मीद लगाए रहते हैं और ऐसे देश को क्षति पहुंचाने को लेकर उनमें मन में डर बना रहता है।

यही कारण है कि समकालीन विश्व में सामरिक एवं आर्थिक के साथ ही विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी और नवाचार के दम पर अमेरिका सबसे बड़ी महाशक्ति गिना जाता है। चीन भी उसी की राह पर है। भारत ने भी सैन्य एवं आर्थिक मोर्चे पर दशकों से निरंतर प्रगति की है, जिसमें सभी सरकारों का योगदान रहा है। पिछले एक दशक में मोदी सरकार भी उसी दिशा में सक्रिय रही है।

बीते एक दशक के दौरान वैश्विक परिदृश्य में बहुत बदलाव आया है। इस दौरान चीन का उदय और भारत के प्रति उसकी टेढ़ी नजर देखने को मिली। गलवन में मिली चीनी चुनौती के बाद मोदी सरकार को उससे निपटने की राह तलाशनी ही थी। उसी दौरान आत्मनिर्भर भारत से जुड़ा मोदी का आह्वान समयानुकूल था। विदेशी निवेश को आकर्षित करने के साथ ही भारत को अपने दम पर विनिर्माण का वैश्विक केंद्र भी बनना होगा। ऐसे में चीन से बढ़ता आयात किसी दृष्टि से संतोषजनक नहीं। इस अवधि में भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना और तेजी से तीसरी सबसे बड़ी आर्थिकी बनने की ओर अग्रसर है। इसके लिए मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन को श्रेय देना होगा।

आज भारत जिस स्थिति में पहुंचा है उसके लिए पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनकी सरकार में वित्त मंत्री एवं कालांतर में पीएम बने मनमोहन सिंह के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। राव के दौर में ही आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। अब समाजवाद भले ही गलत समझा जाने वाला शब्द हो, लेकिन आजादी के तुरंत बाद जब भारत को सामंतवाद और आर्थिक गतिहीनता की स्थिति से निकालकर समतावादी समाज की स्थापना एवं देश को आर्थिक प्रगति की राह पर बढ़ाने जैसे लक्ष्य सामने थे, तब ऐसी स्थिति में भारतीय राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण होनी थी। इस प्रकार से उस समय समाजवाद अनुपयुक्त नहीं था। वर्तमान की दृष्टि से अतीत को आंकना उचित नहीं। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि प्रधानमंत्री नेहरू का जोर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने पर अधिक था। देश को ज्ञान महाशक्ति बनाने की नेहरू की नीति आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।

पिछले एक दशक के दौरान अपनी शक्ति स्थापना से जुड़ी भारत की क्षमता बढ़ी है। भारतीय नौसेना अब बहुत ताकतवर हो गई है, जो हिंद महासागर क्षेत्र में अपना प्रभाव एवं उपस्थिति दर्शा रही है। वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सकारात्मक भूमिका निभाने की क्षमताएं हासिल कर रही है। इस कड़ी में भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों द्वारा गठित क्वाड संगठन का यही संकेत है कि वह इस क्षेत्र में चीन की दादागीरी एवं मनमानी नहीं चलने देगा। ये देश नियम-आधारित वैश्विक ढांचे के पक्षधर हैं।

इसमें मुक्त सामुद्रिक आवाजाही सुनिश्चित करना भी शामिल है, जो भारत के हितों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत न केवल एक व्यापारिक राष्ट्र है, बल्कि अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए आयात होने वाले संसाधनों पर निर्भर भी है। देश को सामरिक रूप से शक्तिशाली बनाने में भी सभी सरकारों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई है। चुनावी दौर में किसी एक सरकार को इसका श्रेय नहीं दिया जा सकता। हालांकि यह विभिन्न राजनीतिक दलों के ऊपर निर्भर है कि वे भारत की सामरिक तैयारियों को लेकर अपनी भूमिका किस प्रकार रेखांकित करते हैं।

सॉफ्ट पावर यानी सांस्कृतिक शक्ति किसी देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा तीसरा अवयव है। मोदी सरकार और संघ परिवार भारत की सॉफ्ट पावर को बढ़ाने पर विशेष महत्व देते हैं। उनका दावा है कि उन्होंने देश की सॉफ्ट पावर को बढ़ाने के लिए कई निर्णायक कदम उठाए हैं। इसमें योग और मानवता के विकास में प्राचीन भारत के योगदान जैसे पहलुओं को रेखांकित किया गया। उन्होंने भारत को ‘लोकतंत्र की जननी’ के रूप में भी प्रस्तुत किया।

हालांकि देश की प्रतिष्ठा पर सॉफ्ट पावर के सुस्पष्ट प्रभाव का आकलन कुछ मुश्किल है, लेकिन यह देश की छवि को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। जैसे कि अंग्रेजी के कारोबार और कूटनीति की भाषा बन जाने से इंग्लैंड को बहुत लाभ पहुंचा। इसी तरह हालीवुड स्थित अमेरिकी फिल्म उद्योग उसकी सॉफ्ट पावर का हिस्सा है। इसी संदर्भ में बालीवुड ने भारत के लिए भूमिका निभाई है।

नि:संदेह दुनिया का ध्यान प्राचीन भारत की उपलब्धियों की ओर आकर्षित कराया जाना चाहिए, लेकिन भारत की सॉफ्ट पावर का सबसे बेहतरीन पहलू उसका लोकतंत्र है। विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश किस प्रकार अपने लोकतंत्र को कायम रखे हुए है, यह विश्व के समक्ष किसी आश्चर्य से कम नहीं। इसीलिए, लोकतंत्र की सेहत और स्वतंत्र संस्थानों के माध्यम से सभी नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षण सदैव दूसरों की निगरानी में रहेगा। जब तक हम लोकतंत्र को पूर्णत: अक्षुण्ण बनाए रखेंगे, तब तक भारत की सॉफ्ट पावर मुखरता के साथ अपनी चमक बिखेरती रहेगी।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)