सीबीपी श्रीवास्तव। हाल में कलकत्ता उच्च न्यायालय की ओर से 25 हजार शिक्षकों एवं अन्य कर्मियों की नियुक्ति रद करने के फैसले से बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नाराज हो गईं। उन्होंने ऐसे बयान दिए कि फैसला पक्षपाती है और कोर्ट बिक गया। उनके इन बयानों को अदालत की अवमानना करार देकर वकीलों ने हाई कोर्ट से उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की।

पता नहीं, कोर्ट वकीलों की इस शिकायत का संज्ञान लेता है या नहीं, लेकिन यह पहली बार नहीं, जब किसी ने अदालत के किसी फैसले से असहमत होकर ऐसा कुछ कहा हो कि उसने किसी के इशारे पर या दबाव में फैसला दिया। ऐसे आरोप अनुच्छेद 370, अयोध्या मामले में भी लगाए जा चुके हैं। शायद न्यायपालिका को निशाना बनाए जाने के इसी सिलसिले को देखते हुए बीते दिनों उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के 21 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने ‘सोचे-समझे दबाव, गलत सूचना और सार्वजनिक रूप से अपमान के जरिये न्यायपालिका को कमजोर करने के कुछ गुटों’ के बढ़ते प्रयासों पर मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा। कुछ समय पहले भी 600 अधिवक्ताओं ने भी इसी विषय पर मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा था। प्रश्न यह है कि क्या सही मायने में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आघात हो रहा है?

एक सफल और जीवंत लोकतंत्र में फैसलों से असहमति और संस्थाओं की कार्यप्रणाली की आलोचना उसकी सुदृढ़ता बढ़ाती है, लेकिन आलोचना सकारात्मक और पूर्वाग्रह रहित होनी चाहिए। यह राजनीतिक उद्देश्यों से भी नहीं होनी चाहिए। यदि कोई अन्य विशेष रूप से नेता एवं अधिवक्ता न्यायिक निर्णयों की आलोचना करते हैं तो उसका आधार कानून में अंतर्निहित तथ्य होने चाहिए, न कि उनके राजनीतिक विचार। न्यायपालिका के निर्णय वस्तुनिष्ठ और विधि पर आधारित होते हैं।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका पर दबाव बनाना सरल नहीं होता। इसके साथ ही, जो विषय आम जनता के बीच चर्चा में होता है, उसमें सामाजिक परिस्थितियों के हिसाब से न्यायिक निर्णय प्रभावित नहीं होता। न्यायपालिका के किसी फैसले से असहमति हो सकती है और उसकी आलोचना भी हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसकी साख पर सवाल उठाए जाएं या फिर उसे बदनाम किया जाए। यह दुखद है कि कई बार जाने-माने अधिवक्ताओं द्वारा भी अदालत के फैसलों पर असहमति जताते समय राजनीतिक भाषा का प्रयोग किया जाता है।

यह खराब चलन बढ़ रहा है। इसमें नेता भी शामिल हो रहे हैं। अदालत के फैसलों की आलोचना लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए आवश्यक है, लेकिन वह सकारात्मक और भाषाई दृष्टि से विधिसम्मत होनी चाहिए। आलोचकों और विशेषकर नेताओं एवं अधिवक्ताओं को यह समझना होगा कि आलोचना को राजनीतिक स्वर देने से न्यायपालिका की गरिमा प्रभावित होती है। उन्हें यह समझना होगा कि अदालत का हर फैसला उनके मन मुताबिक नहीं हो सकता।

संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए शक्तियों के पृथक्कीकरण के सिद्धांत को आधार बनाया था। संविधान के अनुच्छेद-50 में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ऐसे पृथक्कीकरण का स्पष्ट उल्लेख है, जबकि विधायिका और न्यायपालिका के बीच ऐसा पृथक्कीकरण अनुच्छेद 121 और 122 में अंतर्निहित है, जिनमें क्रमशः यह कहा गया है कि संसद में न्यायाधीश के आचरण पर सामान्य परिस्थितियों में चर्चा नहीं की जाएगी और संसदीय कार्यवाही में न्यायालय का हस्तक्षेप नहीं होगा।

हालांकि स्वतंत्र न्यायपालिका के निरंकुश हो जाने की आशंका भी होती है, जिसे ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने समस्त न्यायिक शक्तियां संविधान में ही रखी हैं, ताकि न्यायपालिका पर संवैधानिक नियंत्रण बना रहे। इस संबंध ने उच्चतम न्यायालय ने एल. चंद्रकुमार बनाम भारत संघ 1997 मामले में स्वयं यह कहा था कि समस्त न्यायिक शक्तियां संविधान में निहित हैं, लेकिन शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत के प्रचलन के कारण भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पूर्णतः सुरक्षित है।

अक्सर यह देखा गया है कि न्यायपालिका सरकार की नीतियों के संवैधानिक न होने पर उन्हें निरस्त करने से पीछे नहीं हटती। इसका हाल का सबसे बड़ा उदाहरण चुनावी बांड पर दिया गया निर्णय है। इसी प्रकार हाल में एमके रणजीत सिंह बनाम भारत संघ 2024 मामले में जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध अधिकार को एक मूल अधिकार बनाकर और उसे अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 (क्रमशः समानता और जीवन का अधिकार) से जोड़कर राज्य को पर्यावरण के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने के लिए निर्देश दिया गया।

न्यायपालिका का उद्देश्य राज्य-नागरिक संबंधों को सुदृढ़ बनाए रखना है। संवैधानिक सीमाओं के भीतर कार्य करने के कारण न्यायपालिका को किसी भी बाह्य दबाव से उन्मुक्ति है। यह संभव नहीं कि कोई न्यायाधीश या खंडपीठ व्यक्तिगत विचार के आधार पर निर्णय दे, क्योंकि इससे विधि के शासन और संविधान की सर्वोच्चता, दोनों ही सिद्धांत बाधित होते हैं। जहां राज्य के अधिकारों और प्राधिकार के संरक्षण की आवश्यकता है, वहीं नागरिकों के अधिकारों को सीमित करने में न्यायपालिका पीछे नहीं हटती।

किसी भी निर्णय की आलोचना करने के पहले उस मामले के तथ्यों और संबंधित विधियों पर विचार किया जाना चाहिए। यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता कि न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव है। यह ठीक नहीं कि विपक्ष के कुछ नेताओं ने ऐसे आरोप लगाए कि न्यायाधीश सत्तारूढ़ दल के दबाव में हैं। आलोचना का अर्थ यह नहीं कि हम मर्यादा की सीमा लांघ दें और स्वतंत्र संस्थाओं की गरिमा पर राजनीतिक उद्देश्यों से आघात करें।

(लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस के अध्यक्ष हैं)