सृजनपाल सिंह। गत दिनों नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार सैटेलाइट (निसार) को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से भारत के जीएसएलवी (जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लांच व्हीकल) राकेट द्वारा अंतरिक्ष में भेजा गया। इस राकेट में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन लगा है। निसार अब तक का सबसे महंगा नागरिक पृथ्वी इमेजिंग सैटेलाइट है।

अमेरिका और भारत के विज्ञानियों द्वारा विकसित इस सैटेलाइट ने तकनीकी दृष्टि से नए मानक स्थापित किए हैं। यह पूरा घटनाक्रम विश्व स्तर पर भारत की बढ़ती अंतरिक्ष शक्ति का प्रतीक भी बना। नासा भी अपने अंतरिक्ष मिशन के लिए इसरो की मदद लेने लगा है। लगभग तीन दशक पहले तक इसी अमेरिका ने भारत को क्रायोजेनिक इंजन पाने से रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किया था। भारत पर कड़े प्रतिबंध लगाए, अंतरराष्ट्रीय दबाव डाला। उसके इन प्रयासों का लक्ष्य केवल भारत को अंतरिक्ष की अग्रणी शक्ति बनने के रेस से बाहर रखना था। लगता है ट्रंप यह नहीं जानते कि भारत दबाव के आगे नहीं झुकता।

कुछ दशक पहले इसरो ने पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (पीएसएलवी) विकसित कर लिया था, जो लगभग 1,750 किलोग्राम वजन के उपग्रह को पृथ्वी की निचली कक्षा में 600-800 किमी की ऊंचाई तक ले जा सकता था। मगर पीएसएलवी की एक सीमा है। यह भारी उपग्रहों को जियोस्टेशनरी कक्षा तक नहीं पहुंचा सकता था, जो पृथ्वी की सतह से लगभग 36,000 किमी ऊपर होती है। यही वह कक्षा है, जहां अधिकांश संचार, मौसम और प्रसारण के उपग्रह काम करते हैं।

वहां तक पहुंचने के लिए भारत को और अधिक ताकतवर राकेट की आवश्यकता थी। यह काम क्रायोजेनिक इंजन कर सकता था, पर उसका निर्माण अत्यधिक जटिल होता है। इस इंजन के मुख्य ईंधन तरल हाइड्रोजन को -253 डिग्री सेल्सियस और तरल आक्सीजन को -183 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर करना होता है। इन्हें राकेट के भीतर स्थिर रखने और फिर उन्हें प्रज्वलित करने के लिए निपुण इंजीनियरिंग की आवश्यकता होती है। अत्यधिक ठंडे तापमान के कारण धातु की परतों में दरारें आ सकती हैं, वाल्व जाम हो सकते हैं और सील टूट सकती हैं। इसलिए सफल लांचिंग के लिए पूरी प्रणाली को सही दबाव और तापमान के तहत सटीक कार्य करना चाहिए।

क्रायोजेनिक इंजन के अभाव में भारत को महत्वपूर्ण अंतरिक्ष मिशनों के लिए विदेशी राकेटों पर निर्भर रहना पड़ता था। अंतरिक्ष क्षेत्र में पूर्ण आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए इसरो के पास दो विकल्प थे-या तो इस तकनीक को स्वदेशी रूप से विकसित किया जाए या इसे विदेश से लिया जाए। जटिलता और तात्कालिकता को ध्यान में रखते हुए भारत ने पहले विदेश से इसे प्राप्त करने का प्रयास किया। उस समय विश्व में केवल अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान के पास क्रायोजेनिक इंजन थे।

सबसे पहले जापान से बात की गई, लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला। अमेरिका और यूरोप की कंपनियों के प्रस्ताव महंगे थे और उनमें तकनीकी हस्तांतरण भी शामिल नहीं था। यानी अगर इंजन में कोई समस्या होती, तो भारत को बार-बार अमेरिका और यूरोप की चौखट पर दस्तक देनी पड़ती। इसलिए बात नहीं बनी। फिर एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। जनवरी 1991 में इसरो ने रूस की अंतरिक्ष कंपनी ग्लावकोस्मोस के साथ एक समझौता किया, जिसके तहत दो क्रायोजेनिक इंजन और पूरी तकनीक का हस्तांतरण प्रस्तावित हुआ, पर 1992 में अमेरिका ने इसरो और ग्लावकोस्मोस पर प्रतिबंध लगा दिए, जिससे सौदा अवरुद्ध हो गया।

फिर दोनों देशों में एक संशोधित समझौता हुआ। इसमें सात पूरी तरह से असेंबल किए गए इंजन की आपूर्ति की अनुमति दी गई, पर इसके साथ कोई ब्लूप्रिंट, प्रशिक्षण या तकनीकी हस्तांतरण का प्रविधान नहीं किया गया। इन इंजनों ने भारत से जीएसएलवी कार्यक्रम की शुरुआती उड़ानों में मदद की, पर यह दीर्घकालिक भविष्य के लिए अपर्याप्त था। इस तकनीकी कमी को दूर करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अप्रैल 1994 में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन विकास कार्यक्रम की नींव रखी। भारत के इस निर्णय ने कई शक्तिशाली देशों को असहज किया।

जब भारत स्वदेशी कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहा था, तब 1994 के अंत में इसरो के क्रायोजेनिक कार्यक्रम प्रमुख, नंबी नारायणन को साजिश के तहत जासूसी के झूठे आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बावजूद इसरो ने हार नहीं मानी। जीएसएलवी की प्रारंभिक उड़ानें कई समस्याओं का सामना करती रहीं, परंतु इसरो के साहस में कमी नहीं आई। अंततः पांच जनवरी, 2014 को इसरो ने सफलतापूर्वक जीएसएलवी-डी5 मिशन लांच किया, जिसमें सौ प्रतिशत स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का उपयोग किया गया।

यह एक मील का पत्थर था, जिसने विश्व समुदाय को अचरज में डाला। तब से भारत नियमित रूप से जीएसएलवी का उपयोग करके भारी उपग्रहों को कक्षा में स्थापित कर रहा है। भारत अब अन्य देशों के लिए एक विश्वसनीय लांच पार्टनर बन गया है। वही क्रायोजेनिक इंजन, जिसे दुनिया ने कभी साझा करने से मना कर दिया था, अब भारत की दृढ़ता का प्रतीक बन चुका है। अमेरिका ने हम पर प्रतिबंध, आक्षेप लगाए, हमारे लक्ष्यों को हमारी पहुंच से बाहर बताकर हमारा मखौल बनाया, लेकिन आज हमारा ग्राहक है। इसरो ने समय-समय पर इन पंक्तियों को चरितार्थ किया है, ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।’

(लेखक एपीजे अब्दुल कलाम सेंटर के सीईओ हैं)