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    इमाम की सियासत

    By Edited By:
    Updated: Tue, 04 Nov 2014 05:09 AM (IST)

    देश की सबसे बड़ी मस्जिद जामा मस्जिद किस धरती पर आबाद है? यदि वह मस्जिद भारत में आबाद है तो वहां के इम

    देश की सबसे बड़ी मस्जिद जामा मस्जिद किस धरती पर आबाद है? यदि वह मस्जिद भारत में आबाद है तो वहां के इमाम की राष्ट्रभक्ति किस देश के साथ जुड़ी होनी चाहिए? दिल्ली स्थित ऐतिहासिक जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने अपने बेटे के दस्तारबंदी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित न कर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न्यौता भेजा है। अपने बेटे को नायब इमाम बनाने के मौके पर सैयद बुखारी का आचरण उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े करता है। इमाम का काम मजहबी मामलों तक सीमित होना चाहिए, किंतु विकृत सेक्युलरवाद ने एक इमाम के अंदर खुद को निजाम समझने का अहंकार पैदा कर दिया है। बुखारी का आचरण उसी सेकुलर मानव‌र्द्धन का दुष्परिणाम है।

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    मुगल शासक शाहजहां ने आगरा में ताजमहल बनवाने के बाद दिल्ली में जामा मस्जिद का निर्माण कराया था। इस मस्जिद की देखरेख और मजहबी कायरें को संपन्न कराने के लिए शाहजहां ने 1656 ई. में उजबेकिस्तान के बुखारा से सैयद अब्दुल गफूर शाह बुखारी को बुलाकर उन्हें जामा मस्जिद का पहला इमाम बनाया था। तब से जामा मस्जिद की इमामत इसी परिवार के पास है। आजकल के जमाने में जब राजे-रजवाड़े नहीं रहे, जामा मस्जिद मुगलिया राजशाही को ढो रहा है। विडंबना यह है कि विकृत सेक्युलरवाद के कारण जामा मस्जिद मजहबी कामों की जगह राजनीति में अनावश्यक दखलंदाजी भी करता आया है। ऐसे समय में जब पाकिस्तान बिना किसी उकसावे के संघर्ष विराम का उल्लंघन कर रहा हो, सीमा पर गोलीबारी कर निरपराध नागरिकों की हत्या कर रहा हो और आतंकवाद को पोषित कर भारत को निरंतर खंडित करने की साजिश में जुटा हो, उस शत्रु देश के प्रधानमंत्री को आमंत्रित करना क्या राष्ट्रद्रोह नहीं है?

    भारतीय प्रधानमंत्री को आमंत्रित नहीं करने के अपने निर्णय की सफाई देते हुए बुखारी ने कहा है, ''पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भारत के प्रधानमंत्री से ज्यादा पसंद है। भारत के मुसलमान नरेंद्र मोदी को अपना नेता नहीं मानते। वह भले ही प्रधानमंत्री चुने गए हों, किंतु भारत के मुसलमानों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।'' वास्तव में बुखारी को पूरे भारतीय मुस्लिम समुदाय का रहनुमा होने का दंभ हो रहा है तो इसके लिए विकृत सेक्युलरवाद दोषी है, जो हर चुनाव में मुस्लिमों का साथ पाने के लिए बुखारी के आगे सजदा करता आया है। वर्तमान इमाम के पिता अब्दुल्ला बुखारी के जमाने से प्रारंभ हुई यह विकृति मौजूदा इमाम के काल में अपने निकृष्टतम स्तर पर है। 1980 के चुनाव में अब्दुल्ला बुखारी ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फतवा जारी किया था। आपातकाल की ज्यादतियों के कारण जनता ने 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंका था। स्वाभाविक रूप से जब 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी हुई तो जामा मस्जिद का सियासत में हस्तक्षेप और वहां के इमाम के अंदर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ीं। आलम यह था कि एक ओर जब 15 अगस्त को इंदिरा गांधी लाल किले से देश को संबोधित करती थीं तो दूसरी ओर अब्दुल्ला बुखारी जामा मस्जिद से तकरीर करते थे। सेक्युलरवाद के एक और नामवर झंडाबरदार वीपी सिंह के कार्यकाल में अब्दुल्ला बुखारी की तूती बोलती थी। उनके दबाव में ही जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन को वीपी सिंह ने वापस बुला लिया था।

    अब्दुल्ला बुखारी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को परवान चढ़ाने के लिए सैयद बुखारी ने 1980 में आदम सेना का गठन किया था, किंतु उन्हें जल्दी ही यथार्थ से दो-चार होना पड़ा और अपनी राजनीतिक दुकान बंद करनी पड़ी। वह महत्वाकांक्षा अभी मरी नहीं है तो इसका कारण सेक्युलर जमात द्वारा किया जाने वाला मानव‌र्द्धन है। सैयद बुखारी अपने हितों के आधार पर सियासती खेमा बदलने में माहिर हैं। उनकी फितरत को जानते हुए भी हर चुनाव में खुद को सेक्युलर कहने वाले राजनीतिक दलों में उनका साथ पाने की होड़ लगती है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बुखारी की देहरी पर याचक बनी थीं। बुखारी के फतवे के बावजूद मुस्लिम समाज ने नरेंद्र मोदी पर एतबार किया। भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत में मुसलमानों का भी बड़ा योगदान है। पिछले तीन बार से दिल्ली के मटियामहल से विधायक चुने जा रहे शोएब इकबाल के साथ बुखारी का छत्तीस का आंकड़ा है। किंतु हर चुनाव में इकबाल बड़े अंतर से जीत दर्ज करते आ रहे हैं। जब जामा मस्जिद के बगलगीर मुसलमान बुखारी पर विश्वास नहीं करते तो शेष मुस्लिम समाज उन्हें अपना रहनुमा कैसे मान सकता है?

    उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बुखारी को समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव सिर आंखों पर बिठाए घूमते रहे, किंतु बुखारी अपने दामाद को बेहटा से जिता नहीं पाए, जहां 80 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। बाद में बुखारी ने अपने दामाद को मंत्री बनाने और भाई को राच्यसभा में भेजने के लिए सपा से ब्लैकमेलिंग की। विफल रहने पर इटावा में रैली कर मायावती के गुण गाने लगे। सैयद बुखारी की यही फितरत रही है। 2012 में जिस सपा को इन्होंने समर्थन दिया था उसे वह 2007 और 2009 के चुनाव में मुसलमानों का शत्रु बताया करते थे। आज बुखारी की नजर में प्रधानमंत्री के लिए सबसे मुफीद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं, जिनके संरक्षण में पश्चिम बंगाल जिहादियों के गढ़ के रूप में उभरा है। वहां वोट बैंक के लालच में बांग्लादेशी घुसपैठियों को अभयदान प्राप्त है, जो जिहादी संगठनों की कठपुतली बन इस देश को रक्तरंजित करने की साजिश में जुटे हैं। जामा मस्जिद देश की अमानत है। इस पर वक्फ बोर्ड का हक है। इसे पारिवारिक मिल्कियत समझ दस्तारबंदी को पारिवारिक आयोजन बनाने का हक बुखारी को किसने दिया? यदि यह पारिवारिक मिल्कियत है तो 1976 में उनके पिता अब्दुल्ला बुखारी ने अपना वेतन 130 रुपये से बढ़ाकर 840 रुपये करने के लिए वक्फ बोर्ड के खिलाफ प्रदर्शन क्यों किया था?

    इस देश के सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को कसूरवार नहीं माना है। गुजरात के मुसलमानों के बाद शेष भारत के मुसलमानों ने भी मोदी को स्वीकारा है। गुजरात दंगों का प्रलाप करने की जगह बुखारी को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति खातमी से मिली नसीहत सदा याद रखनी चाहिए, जो उन्होंने 2003 के भारत दौरे के दौरान बुखारी को दी थी। खातमी के भारत आगमन पर उलमा और बुद्धिजीवियों की बैठक आयोजित की गई थी, जिसका बुखारी ने यह कहकर बहिष्कार किया था कि खातमी ने अपने दौरे में भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा पर कुछ नहीं कहा। इस पर खातमी का रुख सामाजिक सौहार्द के लिए बहुत ही सकारात्मक रहा। उन्होंने कड़े शब्दों में ऐसी मानसिकता की निंदा करते हुए कहा था, ''भारतीय मुसलमानों को अपने विवाद आपसी विचार-विमर्श से दूर करने चाहिए।'' स्वाभाविक है कि ऐसे माहौल को विकसित करने के लिए बुखारी जैसे फिरकापरस्त लोगों को हाशिये पर डालने की आवश्यकता है। बुखारी के पाकिस्तान प्रेम पर मुस्लिम समाज के प्रबुद्ध वर्ग की प्रतिक्रिया एक शुभ संकेत है।

    [लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राच्यसभा सदस्य हैं]