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    गरीबी के खिलाफ सेवा का मौन आंदोलन

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Mon, 15 May 2017 11:53 AM (IST)

    उनके सेंटर से कभी किसी मरीज को लौटाया नहीं जाता। चाहे वह परीक्षण का खर्च वहन करने के काबिल हो या न हो।

    गरीबी के खिलाफ सेवा का मौन आंदोलन

    हावड़ा, [ जागरण संवाददाता]। गरीबों के लिए बीमारी किसी गुनाह से कम नहीं, कम से कम हमारे देश की चिकित्सा व्यवस्था ने आज तक यही साबित किया है। नाकाफी सरकारी व्यवस्था ने समानांतर निजी चिकित्सा व्यवस्था को जन्म दिया। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो निजी(प्राइवेट) चिकित्सा संस्थानों का पहला लक्ष्य पैसा बनाना है।

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    सेवा के नाम पर बाहरी चमक-दमक दिखा मरीजों के परिजनों से भारी रकम वसूली जाती है। इसका सबसे बड़ा सबूत है कि निजी संस्थानों की ऐसी हरकतों से परेशान पश्चिम बंगाल सरकार को उनके खिलाफ सख्ता कानून बनाना पड़ा। सरकार ने इसी सत्र में वेस्ट बंगाल क्लीनिकल इस्टेब्लिसमेंट बिल 2017 पास किया है। जिसके तहत निजी संस्थानों को ऐसी किसी भी हरकत के लिए दंडित करने का प्रावधान है।

    कड़ाई के बाद संस्थान सतर्क तो हुए हैं, लेकिन सुधर गए हैं, कहना मुश्किल है। क्योंकि सेवा तो जज्बा है, जो जबरन नहीं होती। कानून बनने के बहुत पहले से हावड़ा के शिवपुर इलाके में संचालित परीक्षा डायगनॉस्टिक सेंटर लगातार इसी जज्बे के साथ काम कर रहा है। 1996 में डॉ अशोक द्रोलिया ने इसकी स्थापना की है। मगध युनिवर्सिटी पटना से अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने वाले डॉ द्रोलिया की मानें तो सेंटर को कभी उन्होंने कमाई का साधन नहीं माना। अपने मेडिकल करियर में उन्होंने लगभग रोजाना महसूस किया कि गरीबी कितना मजबूर बना देती है। ऐसे में एक संपन्न कारोबारी परिवार के बेटे डॉ द्रोलिया ने गरीबी के खिलाफ एक मौन आंदोलन छेड़ दिया।

    न भीड़ जुटाई, न प्रचार किया। अपने कर्तव्यों का हाथ थामे जिस सफर पर निकले, वो आज भी जारी है। उन्होंने गरीबी दूर करने के लिए कोई संस्था नहीं खोली बल्कि अपनी संस्था को ही गरीबों के अनुरूप बना दिया। परीक्षा डायगनॉस्टिक सेंटर में आज एमआरआई को छोड़ सभी तरह के परीक्षण की सुविधा उपलब्ध है। डॉ द्रोलिया का दावा है कि यहां परीक्षण पर जितना खर्च है उतना ही लिया जाता है। बाजार में क्या दर है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। अब सवाल उठता है कि तो इसमें अलग क्या है? यहां से शुरू होता है उनका मौन आंदोलन। बकौल डॉ द्रोलिया उनके यहां आने वाले मरीज सिर्फ अपने रोग की चिंता करते हैं, फीस की नहीं।

    उन्होंने यह विश्वास पैदा किया है। उनके सेंटर से कभी किसी मरीज को लौटाया नहीं जाता। चाहे वह परीक्षण का खर्च वहन करने के काबिल हो या न हो। हालांकि इस सुविधा का कुछ लोग दुरुपयोग भी करते हैं। लेकिन इससे डॉ द्रोलिया को फर्क नहीं पड़ता। इलाके में होनेवाले किसी भी मेडिकल कैंप के लिए उनके सेंटर की सेवाएं पूरी तरह से मुफ्त में उपलब्ध हैं। साल में 8-10 से ऐसे कैंप में सेंटर सेवाएं उपलब्ध करता है। निजी क्षेत्र की धांधली पर पूछे जाने में उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार को चाहिए कि मेडिकल क्षेत्र के सभी परीक्षणों के खर्च सरकार तय कर दे। ताकि कोई मनमानी न कर सके।

    डॉ द्रोलिया के दो बच्चे हैं। इंजीनियर एमबीए बेटा सिंगापुर में और सीए बेटी कोलकाता में ही अपनी ससुराल में रमे हैं। अब डॉ द्रोलिया आधुनिक समाज में लगातार एकाकी होते वृद्धों व लोगों के लिए काम करना चाहते हैं। बकौल डॉ द्रोलिया वह एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहते हैं, जिसमें महानगर में बिना परिवार के रहने को मजबूर वृद्धों और अन्य लोगों को पूरी मेडिकल सुविधा उपलब्ध हो। उन्हें ऐसा लगे कि वो अकेले नहीं हैं। बीमारी के दौरान उनकी ऐसी देखभाल हो, मानों वो अपने परिवार के साथ हों।

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