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    इस मंदिर के शिल्पी के राजा ने कटवा दिए हाथ, अब लोग नहीं करते पूजा

    पिथौरागढ़ जनपद में थल तहसील में भोलिया की छीड़ नामक जल प्रतात के निकट एक हथिया देवाल मंदिर ऐसा मंदिर है, जहां लोग मंदिर देखने तो जाते हैं, लेकन पूजा नहीं करते।

    By BhanuEdited By: Updated: Tue, 28 Jun 2016 11:47 AM (IST)

    पिथौरागढ़, [भानु बंगवाल]: पिथौरागढ़ जनपद में थल तहसील में भोलिया की छीड़ नामक जल प्रतात के निकट एक हथिया देवाल मंदिर ऐसा मंदिर है, जहां लोग मंदिर देखने तो जाते हैं, लेकन पूजा नहीं करते। ऐसा लोग अपशकुन के चलते करते हैं। आइए जानते हैं इस मंदिर की विशेषता।
    उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता। यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ व केदारनाथ चारधाम हैं, वहीं सिखों का पवित्र तीर्थ स्थल हेमकुंड साहिब भी है। इसी तरह पूरे गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल तक ऐसे कई मंदिर हैं, जो पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

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    यहां है एक हथिया देवाल मंदिर
    पिथौरागढ़ की थल तहसील में रामगंगा तथा बालती नदी के संगम पर बालेश्वर मंदिर है। यह मंदिर भी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर अल्मियां एवं बलतिर गांव के मध्य भोलिया की छीड़ नामक जल प्रतात है। इसके पास एक हथिया देवाल मंदिर स्थापित किया गया है।

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    मंदिर की खासियत
    एक हथिया देवाल मंदिर चट्टान को खूबसूरती के साथ गढ़कर बनाया गया है। यह उत्तर भारत का अकेला रॉक कट टेंमिल की तरह है। कहा जाता है कि एक पत्थर पर एक ही रात में एक ही शिल्पी ने एक हाथ से इसका निर्माण किया। इसलिए इसे एक हथिया देवाल के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का जो मंदिर है उसके लिंग का मुंह दक्षिण दिशा में है।


    स्कंध पुराण में ही है वर्णन
    पौराणिक काल में यह क्षेत्र माल तीर्थ के नाम से जाना जाता था। प्राकृतिक रूप से खूबसूरत इस क्षेत्र का वर्णन स्कंध पुराण में भी मिलता है।
    इसलिए नहीं होती पूजा
    कलात्मक मंदिरों और नौलों (पानी के कुुंओं) के निर्माण के बाद तत्कालीन कत्यूरी राजा ने सोचा कि कोई दूसरा इस तरह के मंदिरों का निर्माण न करा दे। इसी भय से उसने एक हथिया देवाल मंदिर के शिल्पी का हाथ कटवा दिया। इस घटना को अपशकुन मानते हुए लोगों ने मलिका तीर्थ में स्नान करना भी छोड़ दिया और इस मंदिर में पूजा अर्चना भी नहीं की। साथ ही मंदिर में शिवलिंग का मुंह दक्षिण दिशा की ओर होने के कारण भी इस मंदिर को पूजा की दृष्टि से अपशकुन माना गया।

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    मंदिर निर्माण की शैली
    उत्तर भारत का यह मंदिर स्वयं में परिपूर्ण है। देवालय को शिल्पी ने एक प्रस्तर खंड में ऐसा गढ़ा कि यह प्रस्तर खंड पश्चिम एवं दक्षिण की ओर खुला है। पूर्व और उत्तर दिशा से शिला से गढ़न की गई है। मंदिर की तलछंद योजना में गर्भगृह, अंतराल अथवा कपीली और मंडप का विधान रखा गया है।

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    गर्भगृह की चट्टान के भीतरी भाग को काटकर मूलदेवता के रूप में शिवलिंग गढ़ा गया है। मंडप के सामने जल प्रणाली बनाई गई है। उसी के पश्चिमोत्तर हिस्से को काटकर गूल बनाई गई है। इस मंदिर की रचना में नागर व लैटिन शैली का प्रयोग किया गया है। मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिमोभिमुख है। भगवाल भोले के इस मंदिर को देखने दूर दूर से भक्त को आते हैं, लेकिन पूजा नहीं करते।
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