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    यह है दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता, यहां से होता था भारत-तिब्बत व्यापार

    17वीं शताब्दी में पेशावर के पठानों ने समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर उत्तरकाशी की नेलांग घाटी में हिमालय की खड़ी पहाड़ी को काटकर दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता तैयार किया था।

    By sunil negiEdited By: Updated: Tue, 21 Jun 2016 12:39 PM (IST)

    उत्तरकाशी, [शैलेंद्र गोदियाल]: 17वीं शताब्दी में पेशावर के पठानों ने समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में हिमालय की खड़ी पहाड़ी को काटकर दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता तैयार किया था। पांच सौ मीटर लंबा लकड़ी से तैयार यह सीढ़ीनुमा मार्ग (गर्तांगली) भारत-तिब्बत व्यापार का साक्षी रहा है। सन् 1962 से पूर्व भारत-तिब्बत के व्यापारी याक, घोड़ा-खच्चर व भेड़-बकरियों पर सामान लादकर इसी रास्ते से आवागमन करते थे। भारत-चीन युद्ध के बाद दस वर्षों तक सेना ने भी इस मार्ग का उपयोग किया। लेकिन, पिछले 40 वर्षों से गर्तांगली का उपयोग और रखरखाव न होने के कारण इसका अस्तित्व मिटने जा रहा है।

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    उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी चीन सीमा से लगी है। सीमा पर भारत की सुमला, मंडी, नीला पानी, त्रिपानी, पीडीए व जादूंग अंतिम चौकियां हैं। सामरिक दृष्टि से संवेदनशील होने के कारण इस क्षेत्र को इनर लाइन क्षेत्र घोषित किया गया है। यहां कदम-कदम पर सेना की कड़ी चौकसी है और बिना अनुमति के जाने पर रोक है। लेकिन, एक समय ऐसा भी था, जब नेलांग घाटी भारत-तिब्बत के व्यापारियों से गुलजार रहा करती थी। दोरजी (तिब्बत के व्यापारी) ऊन, चमड़े से बने वस्त्र व नमक को लेकर सुमला, मंडी, नेलांग की गर्तांगली होते हुए उत्तरकाशी पहुंचते थे। तब उत्तरकाशी में हाट लगा करती थी। इसी कारण उत्तरकाशी को बाड़ाहाट (बड़ा बाजार) भी कहा जाता है। सामान बेचने के बाद दोरजी यहां से तेल, मसाले, दालें, गुड़, तंबाकू आदि वस्तुओं को लेकर लौटते थे।

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    इस व्यापार का अब गर्तांगली ही एकमात्र प्रमुख प्रमाण बचा है, जो रखरखाव के अभाव में अंतिम सांसें गिन रहा है। हर्षिल की प्रधान 74 वर्षीय बसंती देवी बताती हैं कि 1962 से पहले दोरजी गर्तांगली के रास्ते ही उत्तरकाशी आते थे। तब नेलांग जाने के लिए कोई और रास्ता नहीं था। नेलांग गांव के मूल निवासी 68 वर्षीय नारायण सिंह बताते हैं, 'सन् 62 में जब सेना ने नेलांग गांव को खाली कराया, तब मैं गर्तांगली से होकर बगोरी पहुंचा था। मैंने पूर्वजों से सुना है कि यह रास्ता 17वीं शताब्दी में पेशावर से आए पठानों ने बनाया था। 1975 तक सेना ने भी इस रास्ते का उपयोग किया। लेकिन अब यह रास्ता जगह-जगह से टूट चुका है।'



    रखरखाव को नहीं कोई योजना
    1965 में लोनिवि ने गर्तांगली के रास्ते की मरम्मत की थी, लेकिन इसके बाद आज तक इसकी सुध नहीं ली गई। खड़ी चट्टान को काटकर बनाया गया लकड़ी की सीढ़ी से बनाया गया पांच सौ मीटर लंबा यह रास्ता करीब 10 स्थानों पर टूट गया है। वेयर ईगल देयर ट्रै एजेंसी के संचालक तिलक सोनी बताते हैं कि गर्तांगली एडवेंचर का एक खास मार्ग बन सकता है। गंगोत्री नेशनल पार्क प्रशासन को उन्होंने इस संबंध में पत्र भी लिखा है। जबकि, गंगोत्री नेशनल पार्क के रेंज अधिकारी प्रताप पंवार कहते हैं कि गर्तांगली मार्ग को दुरुस्त करने के लिए इस वर्ष प्रस्ताव तैयार किया जाएगा।

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