उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017: 16 साल, 16 सवाल
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव की सरगर्मी ने सियासी पारे में उछाल ला दिया है। आखिर पांच साल के बाद फिर आ गया चुनाव का मौसम। या कहें तो दावों और वादों का मौसम अब अपने पूरे शबाब पर है।
देहरादून, [विकास धूलिया]: उत्तराखंड में इन दिनों कंपकपाती शीतलहर के बीच विधानसभा चुनाव की सरगर्मी ने सियासी पारे में उछाल ला दिया है। आखिर पांच साल के बाद फिर आ गया चुनाव का मौसम। या कहें तो दावों और वादों का मौसम अब अपने पूरे शबाब पर है। चुनाव लड़ने वाले सियासतदां और सियासी पार्टियों को तो इसका इंतजार रहता ही है, मतदाताओं के लिए भी यह मौसम कम लुभावना नहीं।
पूरे पांच साल नेता जी नजर आते नहीं और अगर कभी टकरा भी गए तो जनाब के पास समस्याओं के समाधान को वक्त नहीं। बस, चुनाव के दौरान यही चंद दिन होते हैं, जब मतदाता नेता जी का नहीं, बल्कि नेता जी अपने वोटर का अनुसरण करते हैं।
उत्तराखंड को अलग राज्य बने सोलह साल हो चुके हैं लेकिन कभी आपने गौर किया कि इस लंबे वक्फे में भी कई सवाल अब तक अनसुलझे हैं। आईए आपको रूबरू कराएं 16 सालों के ऐसे अनसुलझे 16 सवालों से।
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स्थाई राजधानी
राज्य गठन के वक्त देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाया गया था, मगर तब से अब तक इन सोलह सालों में इस मुद्दे पर केवल सियासत ही हुई। राज्य गठन के तुरंत बाद गठित राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट सालों से धूल खा रही है।
मौजूदा कांग्रेस सरकार ने गैरसैंण में विधानभवन, सचिवालय निर्माण और यहां कैबिनेट बैठक व विधानसभा सत्र का आयोजन तो किया मगर इसे स्थाई राजधानी घोषित करने का साहस नहीं जुटा पाई।
परिसंपत्तियों का बंटवारा
उत्तराखंड का अपने पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश के साथ परिसंपत्तियों के बंटवारे की प्रक्रिया अब तक भी पूरी तरह निबटाई नहीं जा सकी है। हालांकि इस वक्फे में कई अहम मसलों पर दोनों राज्यों में आम सहमति बनी, लेकिन कुछ अभी भी लंबित पड़े हैं।
खासकर, सिंचाई विभाग से संबंधित परिसंपत्तियां। मौजूदा सरकार ने उत्तर प्रदेश की सपा सरकार से बातचीत कर कुछ कदम आगे जरूर बढ़ाए, मगर मामला अब भी मुकाम तक नहीं पहुंच पाया है।
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केंद्र का भेदभाव
यह एक ऐसा सवाल है, जिसका हल शायद ही कभी निकल पाए। केंद्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों की सरकारों के वजूद में होने के कारण अकसर राज्य द्वारा केंद्र पर भेदभावपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप लगाए जाते हैं।
दरअसल, पिछले सोलह सालों में से केवल साढ़े छह साल यह स्थिति रही कि केंद्र और राज्य में किसी एक ही पार्टी की सरकार रही। अन्यथा केंद्र में भाजपा तो राज्य में कांग्रेस और केंद्र में कांग्रेस तो राज्य में भाजपा।
राजनैतिक अस्थिरता
सियासी अस्थिरता का तो मानों उत्तराखंड से पैदाइशी नाता है। सूबे में सरकार भाजपा की रही या फिर कांग्रेस की, अस्थिरता ने कभी सूबे का दामन नहीं छोड़ा। इसके लिए काफी हद तक इन दोनों पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व को जिम्मेदार माना जा सकता है क्योंकि सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री का चयन ऊपर से ही होता आया, न कि विधायकों की मर्जी से। नतीजा आपके सामने है, सोलह साल में आठ मुख्यमंत्री, इनमें भुवन चंद्र खंडूड़ी के दो कार्यकाल शामिल हैं।
निरंकुश अफसरशाही
प्रदेश में निरंकुश अफसरशाही को लेकर सवाल उठते रहे हैं। शायद ही कोई ऐसी सरकार रही हो जब इस मसले पर आवाज न उठी हो। मौजूदा सरकार में मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद नौकरशाही पर आदेशों को जलेबी की तरह घुमाने का आरोप लगा चुके हैं। अन्य कैबिनेट मंत्रियों ने भी मुख्यमंत्री से लेकर सार्वजनिक मंचों तक पर नौकरशाही की कार्यशैली पर सवाल उठाए।
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अवैध खनन
प्रदेश में अवैध खनन पिछले डेढ़ दशक में विवादास्पद मुद्दा रहा है। इस सरकार में वैध और अवैध खनन को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने खनन पर रोक क्या लगाई कि खनन माफियाओं की पौ बारह हो गई। खनन पर पाबंदी के बावजूद नदियों के सीने छलनी किए गए। सरकार की ओर से इसके लिए एसआइटी गठित की लेकिन शुरुआती दौर में तेजी दिखाने के बाद अब मामला फिर ठप सा है।
भ्रष्टाचार और घोटाले
कभी महसूस होता है कि उत्तराखंड का गठन ही भ्रष्टाचार और घोटालों के लिए हुआ है। विडंबना यह है कि भाजपा या कांग्रेस हमेशा इसे मुद्दा बनती हैं मगर केवल उस समय, जब वे विपक्ष की भूमिका में होती हैं। अब तक के सभी चुनावों में भ्रष्टाचार और घोटाले प्रमुख चुनावी मुद्दा बनते रहे हैं लेकिन अचरज की बात यह है कि तमाम आयोगों के गठन और उनकी रिपोर्ट आ जाने के बावजूद कोई राजनेता इनकी जद में नहीं आया।
बेरोजगारी और पलायन
राज्य आंदोलन के पीछे भी एक बड़ा सवाल बेरोजगारी और पलायन था। राज्य गठन के बाद उम्मीदें जगी कि इन बड़े सवालों का कुछ समाधान निकलेगा, लेकिन स्थिति और बिगड़ी है।
गुजरे 16 साल में पलायन की रफ्तार जिस तेजी से बढ़ी है, उसने पेशानी में बल डाल दिए हैं। इस अवधि में 3000 से अधिक गांव पलायन के चलते खाली हुए हैं। यही नहीं, शिक्षा एवं रोजगार की तलाश में युवाओं का पलायन बढ़ा है।
लालबत्तियों पर फिजूलखर्ची
यूं तो आर्थिकी के लिहाज से उत्तराखंड एक कमजोर राज्य है मगर फिजूलखर्ची पर कोई लगाम नहीं। फिजूलखची, वह भी केवल राजनैतिक तुष्टिकरण के लिए। राज्य की पहली निर्वाचित सरकार ने विभिन्न निगमों, परिषदों व समितियों में राजनैतिक नियुक्तियों के जरिये लालबत्ती बांटने की परंपरा डाली जिसे अगली सरकारों ने और ज्यादा सींचा। मंत्रिमंडल अधिकतम 12 सदस्यीय ही हो सकता है लेकिन मंत्री पद के समकक्ष दर्जे के पदों की संख्या हर साकार में सौ से पार पहुंच जाती है।
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नए जिलों का गठन
उत्तर प्रदेश के समय के ही तेरह जिलों को मिलाकर उत्तराखंड का गठन किया गया। विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण शुरुआत से ही राज्य में नए जिलों की मांग उठती रही है।
वर्ष 2011 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने चार नए जिलों की घोषणा की मगर फिर सत्ता परिवर्तन के कारण मामला ठंडे बस्ते में चला गया। मौजूदा कांग्रेस सरकार ने ग्यारह नए जिले बनाने की मंशा जताई जरूर मगर बगैर होमवर्क नए जिले हवा में ही लटक गए।
अनियोजित शहरी विकास
उत्तराखंड की करीब 70 फीसद आबादी देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर व नैनीताल जैसे मैदानी जिलों में निवास करती है। शहरीकरण की दौड़ में इन जिलों में जनदबाव तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन अनियोजित विकास ने मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।
मसलन, मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण की नाक के नीचे 30 हजार से अधिक अवैध निर्माण अस्तित्व में आ चुके हैं। समूचा उत्तराखंड भूकंप के संवेदनशील जो चार व पांच में आता है, इसके बावजूद अधिक निर्माण वाले मैदानी इलाकों में भूकंपरोधी तकनीक को सिरे से नजरंदाज किया जा रहा है।
मानव-वन्यजीव संघर्ष
सूबे में गहराते मानव-वन्यजीव संघर्ष का सवाल भी अब तक अनुत्तरित है। 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में इस सवाल को हल करने के लिए बातें तो लगातार हो रहीं, मगर समाधान अब तक नहीं हो पाया है।
राज्य गठन से अब तक 400 के लगभग लोगों की जान वन्यजीवों के हमलों में जा चुकी है, जबकि एक हजार से अधिक घायल हुए हैं। यही नही, इस संघर्ष में वन्यजीवों की बड़ी संख्या में जान गई है।
मूलभूत सुविधाओं का अभाव
बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता पिछले सोलह सालों में निश्चित रूप से बेहतर हुई है, लेकिन यह भी सच है कि इन्हीं के अभाव से सूबे की जनता सर्वाधिक त्रस्त भी रहती है।
गंगा, यमुना जैसी सदानीरा नदियों के बावजूद गर्मियों में पेयजल संकट आम बात है। कभी ऊर्जा प्रदेश बनने का ख्वाब देखने वाला उत्तराखंड अब भी जरूरत के मुताबिक बिजली उत्पादन नहीं कर पा रहा है। सड़कों की स्थिति भी कमोवेश ऐसा ही कुछ बयां करती है।
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चरमराती स्वास्थ्य सुविधाएं
उत्तराखंड जैसे विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य में स्वास्थ्य सुविधाएं अभी भी भगवान भरोसे हैं। केवल डॉक्टरों की ही बात की जाए तो स्वास्थ्य महकमे में ढांचे में पचास फीसद से ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं।
जो हैं भी, वे मैदानी तैनाती चाहते हैं, पहाड़ चढ़ने को कोई तैयार नहीं। बेहतर उपचार के लिए आज भी अधिकांश जनता देहरादून, हल्द्वानी जैसे शहरों पर ही निर्भर रहती है।
गुड गवर्नेंस का अभाव
उत्तराखंड अब कैशोर्य में प्रवेश कर चुका है मगर बेहतर कार्यशैली आज तक विकसित नहीं हो पाई। बात चाहे सरकारी कामकाज की हो या फिर कर्मचारियों की पदोन्नति या तबादलों की, सब कुछ भगवान या फिर ऊंची पहुंच के ही भरोसे है। लापरवाह कार्यशैली सीधे विकास की गति पर असर डालती है और उत्तराखंड इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी है।
लचर आपदा प्रबंधन
जब राज्य बना था, उस समय उत्तराखंड देश में ऐसा पहला राज्य था, जहां अलग से आपदा प्रबंधन मंत्रालय बनाया गया। खासकर बरसात के दौरान भूस्खलन, बाढ़ जैसी घटनाएं यहां आम हैं।
लेकिन इसके बावजूद आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में सूबा दो कदम भी नहीं बढ़ पाया। जून 2013 की भयावह प्राकृतिक आपदा, जिसमें हजारों लोगों ने जान गंवाई, के दौरान आपदा प्रबंधन तंत्र की पोल पूरी तरह खुल गई।
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