उत्तराखंड चुनाव: सेनापतियों को साधें तो सब सध जाए
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में सरकार के मुखिया और प्रदेश संगठन के मुखिया में ठनी पड़ी है। चिंता चुनाव के बाद सरकार बनाने के जुगाड़ की है।
देहरादून, [ रविंद्र बड़थ्वाल]: चुनावी जंग की दुंदुभि बज चुकी है और फौज कदमताल कर रही है, ऐसे में सेनापतियों में ठनी हो तो प्रजा का जो हाल है, वह तो है ही, दलों की कमान संभालने वाले शीर्ष नेतृत्व के चेहरे पर भी हवाइयां उड़ती दिख रही हैं। लिहाजा कसरत इस बात की हो रही है कि फौज से पहले सेनापतियों को संभाला जाए। सूबे की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस का फिलहाल यही हाल है।
सरकार के मुखिया और प्रदेश संगठन के मुखिया में ठनी पड़ी है। एक की चिंता चुनाव के बाद सरकार बनाने के जुगाड़ की है तो दूसरे को संगठन और दिग्गजों के उजड़ते आशियाने को बचाने की चिंता खाए जा रही है। दोनों को साथ लेकर चुनावी नैया खेने के लिए फिक्रमंद हाईकमान ने प्रशांत किशोर यानी पीके के रूप में तीसरी इंट्री करा दी है। पीके अब दोनों में तालमेल तो रखेंगे ही, आने वाले चुनाव में येन-केन-प्रकारेण पार्टी जीते और सरकार बने, इसकी जुगत में लगे हैं।
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चुनाव के मौके पर यदि मंजिल हासिल करने के लिए अलग-अलग तरीके से लड़ाई लड़ी जाएगी तो नतीजे सिर चकराते नजर आ सकते हैं। फिलहाल ये चिंता कांग्रेस हाईकमान का सिर दुखाए हुए है। ये मामला बाहर से जितना हल्का नजर आता है, इसकी जड़ें उतनी ही गहरी हैं। खासतौर पर उत्तराखंड में ये गुत्थी इसलिए भी ज्यादा उलझी है कि कोई भी एकतरफा फैसला कांग्रेस की गत उत्तर प्रदेश सरीखी बना सकता है। संगठन के लिहाज से राज्य में मजबूत स्थिति में दिख रही कांग्रेस की चिंता धीरे-धीरे बढ़ती टूटन को लेकर है। दस विधायकों की बगावत ने कांग्रेस की चूलें ढीली की हैं।
यह सिलसिला थमा नहीं तो पार्टी को उत्तर प्रदेश की तर्ज पर बैसाखियों के सहारे घिसटने को मजबूर होना पड़ सकता है। प्रदेश कांग्रेस के भीतर ये जो अंदरूनी टसल है, सूबे की सत्ता में पार्टी की सरकार भले ही पांच साल पूरे कर रही हो, लेकिन इन पांच सालों में इसे लेकर खूब हलचल रही है। कांग्रेस के दोनों मुख्यमंत्री इस परेशानी से जूझते रहे हैं। इसका नतीजा बगावत के रूप में सामने आ चुका है। ये दीगर बात है कि सूबे में पार्टी और सरकार के रणनीतिकार हकीकत से मुंह चुराने की कोशिश करते ही दिखाई दिए हैं।
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चुनाव में नामांकन और मतदान की तिथियां जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही हैं, इन हालात से चिंतित पार्टी हाईकमान की ओर से बेहतर तालमेल बनाने के लिए कोशिशें तेज हो गई हैं। हालांकि, पार्टी का पूरा फोकस सूबे में दोबारा सरकार बनाने पर है, लेकिन इससे सुविधापरस्ती की सियासत कांग्रेस को और खोखला न कर दे, इसे लेकर भी मंथन शुरू हो गया है। यही वजह है कि प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) को साथ लेकर चलने के मामले में कांग्रेस ने अब टेक्टिकल रणनीति अख्तियार कर ली है। कोशिश ये की जा रही है कि पीडीएफ में रह गए निर्दलीय या दलीय विधायकों को कांग्रेस के साथ ही चलने को राजी किया जाए।
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निर्दलीय लड़ने की सूरत में पीडीएफ के विधायकों को समर्थन देने के एवज में पार्टी टूट की संभावना को भी देख रही है। फिलहाल पार्टी का जोर अंदरूनी असंतोष पर काबू पाने का है। इसके लिए मुख्यमंत्री के साथ ही प्रदेश अध्यक्ष के साझा फार्मूले का इंतजार किया जा रहा है, ताकि दोनों के बीच तालमेल में कमी न आए। चुनाव के मौके पर अगर पीडीएफ को तरजीह से संगठन के आंसू निकले तो सरकार की हसरतों पर पानी फिरने के अंदेशे से रणनीतिकार भी इन्कार नहीं कर रहे हैं।
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इसी वजह से संगठन के साथ तालमेल को ताकत देने के लिए चुनाव रणनीतिकार पीके को सक्रिय किया जा चुका है। पीके प्रदेश और जिलों के साथ ही बूथ स्तर तक सांगठनिक तैयारियों पर नजर रखेंगे। इसके लिए हरिद्वार में गढ़वाल मंडल और हल्द्वानी में कुमाऊं मंडल के बूथ स्तरीय सम्मेलन की तारीखें तय की जा चुकी हैं। पार्टी हाईकमान अब पीके के फीडबैक के मुताबिक अपनी अगली रणनीति को काफी हद तक अंजाम देता दिख सकता है।
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