हिमालय दिवस: हिमालय की पीड़ा को समझने की है दरकार
हमेशा ही हिमालय संरक्षण को लेकर बातेंं होती रही। ठोस कदमें उठाने की बात कही गर्इ। लेकिन क्या वाकर्इ में हिमालय संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाए गए ? यह आज भी बड़ा सवाल है।
देहरादून, [केदार दत्त]: जरा, याद कीजिए। जून 2013 का वह मंजर, जब जलप्रलय ने हिमालयी राज्य उत्तराखंड को गहरे तक झकझोर कर रख दिया था। समूची केदारघाटी न सिर्फ तहस-नहस हुई, बल्कि बड़े पैमाने पर जनहानि भी झेलनी पड़ी। कुदरत का कहर यूं ही नहीं बरपा, बल्कि यह पिघलते हिमालय की पीर भी थी। आखिर, सहन करने की भी तो सीमा होती है। सूरतेहाल, सवाल उठता है कि क्या इससे सबक लेने की जरूरत समझी गए? क्या विकास और हिमालय के बीच बेहतर सामंजस्य की दिशा में कदम बढ़ाए गए? दरकते हिमालय और यहां रह रहे जनमानस को महफूज रखने के बारे को लेकर कोई प्रभावी पहल हुई? सवालों की फेहरिश्त बहुत लंबी है, जवाब तलाशें तो निराशा ही हाथ लगती है। हिमालय के संरक्षण की बातें तो खूब रहीं, मगर ठोस एवं प्रभावी कार्ययोजना ने अब तक आकार नहीं लिया है।
बात समझने की है कि हिमालय केवल बर्फ से लकदक पहाड़ों की श्रृंंखला नहीं, बल्कि यह अपनी विशिष्ट संस्कृति और सभ्यता के लिए भी पहचान रखता है। बावजूद इसके हिमालय के साथ ही यहां के समुदाय और संस्कृति से जुड़े सवालों की लगातार अनदेखी होती आई है। फिर बात चाहे यहां के लिए बनने वाली विकास योजनाओं की हो अथवा सुविधाओं के विस्तार की। उत्तराखंड समेत देश के सभी 11 हिमालयी राज्यों का सूरतेहाल इससे जुदा नहीं है।
उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में ही बात करें तो विकास और हिमालय के मध्य जिस सामंजस्य की दरकार है, उसकी नीति नियंता अब तक अनदेखी ही करते आ रहे हैं। यदि क्षेत्र की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर योजनाओं का खाका खींचा जाता तो हिमालय के साथ ही हिमालयी जन भी महफूज रहता। लेकिन, तस्वीर एकदम उलट है। राज्य बनने के बाद गुजरे 17 सालों में हिमालयी की तलहटी में बसे पर्वतीय क्षेत्र के तीन हजार गांव खाली हुए हैं और यह क्रम तेजी से बढ़ रहा है। एक लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है, जिसमें अधिकांश हिस्सा पर्वतीय क्षेत्र का है।
इस सबके बीच हिमालय दरक रहा है तो इसके पीछे मुख्य वजह अनियोजित विकास ही है। आपदा के असर को न्यून करने की दिशा में बेहतर तंत्र विकसित न होने से भी यहां के लोगों का भरोसा डगमगाया है। भविष्य की चिंता और आजीविका के लिए पलायन का क्रम तेजी से बढ़ा है। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटे इस राज्य में गांवों का खाली होना किसी भी दशा में सही नहीं ठहराया जा सकता।
सूरतेहाल, ये भी प्रश्न उठना लाजिमी है कि हिमालयी क्षेत्र में लोग नहीं रहेंगे तो इसे कौन सुरक्षित रखेगा। नीति-निंयताओं को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा। जरूरत इस बात की है कि हिमालय और हिमालयवासियों की पीर को समझते हुए इसके लिए प्रभावी नीति बनाने के साथ ही जन का विश्वास का हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाने की है। उम्मीद की जानी कि इस हिमालय और विकास में बेहतर सामंजस्य कर इसके लिए नीति नियंता प्रभावी कार्ययोजना को धरातल पर आकार देंगे।
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