लड़की कहकर गांववालों ने उड़ाया था मजाक, आज है भारतीय हॉकी टीम की कप्तान
लड़की कहकर गांववालों ने उसका बहुत मजाक बनाया। लेकिन आज वह भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान है। पढ़ें, कप्तान बनने से पहले का इस आयरन लेडी का संघर्ष।
देहरादून, [गौरव गुलेरी]: सिर्फ इसलिए कि लड़की है, गांववालों ने तरह-तरह की बातें बनाईं। पिता को कहा कि लड़कियों को खेलों में डालने से कुछ नहीं होगा। एक बार तो दादा ने भी रास्ता रोक लिया। लेकिन, यह पिता का भरोसा और समर्पण ही था कि हरिद्वार के रोशनाबाद गांव से वंदना कटारिया जैसा हॉकी का कोहिनूर निकला।
वंदना ने न सिर्फ अपने खेल की तूती बुलवाई, बल्कि आज वह भारतीय महिला हॉकी टीम की कमान संभालकर अंतरराष्ट्रीय फलक पर देश को स्वर्णिम सफलता दिलाने को आतुर है। जो गांव वाले राह रोकने को तैयार थे, वही आज उसका वंदन कर रहे हैं। इसी का नतीजा है कि गांव के हर घर से लड़कियां हॉकी स्टिक थामने को तैयार हैं।
भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान चुनी गई वंदना कटारिया का गांव से अंतरराष्ट्रीय फलक तक का सफर संघर्ष भरा रहा। 15 अप्रैल 1992 को रोशनाबाद निवासी नाहर सिंह के घर जन्मी वंदना के बारे में किसी ने भी नहीं सोचा था कि वह हॉकी में ऐसा मुकाम हासिल करेगी।
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वंदना की खेलों के प्रति बचपन से ही रुचि रही। एथलेटिक्स, खो-खो आदि में वंदना ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। बकौल वंदना, मैंने हॉकी खिलाड़ी बनने के बारे में कभी नहीं सोचा था। हॉकी खिलाड़ी रही बड़ी बहन रीना को देखकर हॉकी स्टिक थामी।
वंदना आगे कहती है कि रोशनाबाद स्टेडियम में हॉकी कोच कृष्ण कुमार ने मेरी प्रतिभा को पहचाना और पिता को मुझे हॉकी सिखाने के लिए प्रेरित किया। एक साल रोशनाबाद स्टेडियम में बड़ी बहन के साथ वंदना ने हॉकी की प्रेक्टिस की।
यह वंदना की किस्मत थी या प्रतिभा, जो 2004-05 में उसका चयन स्पोर्टस हॉस्टल लखनऊ के लिए हो गया। वहां हॉकी कोच पूनमलता राज व विष्णुप्रकाश शर्मा ने वंदना के खेल को और निखारा। 2006 में जूनियर इंडिया टीम में चयन के बाद वंदना ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज वह महिला हॉकी टीम की कमान संभाल रही हैं।
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पिता ने उधार लेकर दिलाई हॉकी स्टिक
वंदना के पिता नाहर सिंह बीएचईएल से रिटायर हुए हैं। चार भाई और तीन बहनों में छठे नंबर की वंदना को आगे बढ़ाने में पिता ने कभी पैसों की कमी आड़े नहीं आने दी। बकौल वंदना, गांववाले जब पिता को मेरे बारे में बोलते तो वह कोई जवाब नहीं देते थे। एक बार तो दादा स्व. भरत सिंह ने भी गांववालों की बातों में आकर मुझे खेलने से तो रोका ही, हॉस्टल जाने से भी मना कर दिया।
ऐसे में पिता के साथ मां सोरन देवी भी पूरा सपोर्ट किया। वह कहती हैं कि उन्हें पहली हॉकी स्टिक पिता ने पैसे उधार लेकर दिलाई थी।
खर्च उठाने ब्याज पर लिए पैसे
बेटी के खेल में कोई अड़चन न आए, इसके लिए पिता नाहर सिंह ने ब्याज पर पैसे लेकर वंदना का खर्च उठाया। वंदना बताती हैं, पिता ने हॉस्टल जाने के काफी समय बाद यह बात बताई। 2011 में सेंट्रल रेलवे में नौकरी मिलने के बाद आज वंदना इस काबिल है कि पिता की आर्थिक मदद कर सके।
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लगा कि करियर खत्म हो गया
वंदना बताती हैं कि 2008 में जूनियर टीम में चयन न होने पर लगा कि उनका करियर खत्म हो गया। यह भी डर सताने लगा कि घर वापसी पर गांववालों के दबाव में परिजन शादी न करा दें। लेकिन, किस्मत ने साथ दिया और अपने खेल के दम पर वह टीम का हिस्सा बनी।
आज भी डांटते हैं परिजन
हॉकी में ऊंचा मुकाम हासिल करने के बावजूद भाइयों की लाडली वंदना के आलोचक भी वही हैं। जब भी वंदना प्रतियोगिता खेलकर गांव लौटती है तो भाई उसके प्रदर्शन पर हौसला बढ़ाने के बजाए उसकी खामियां गिनाते हैं। शायद इस चाह में कि वंदना का ध्यान भटके नहीं। आज वंदना को देख गांव के हर घर में लड़कियां हॉकी स्टिक थाम रही हैं।
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