खाली होते गांव उठा रहे हिमालय के संरक्षण पर सवाल
हिमालयी राज्य उत्तराखंड की बात करें तो यहां खाली होते गांवों से हिमालय के संरक्षण पर सवाल खड़ा हो गया है। राज्य के ढाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हैं।
देहरादून, [केदार दत्त]: किसी भी भूभाग के संरक्षण की पहल वहां निवास करने वाले स्थानीय समुदाय के हितों और विचारों की अनदेखी किए बगैर पूरी नहीं हो सकती। हिमालयी क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में हिमालयी राज्य उत्तराखंड की बात करें तो यहां खाली होते गांवों से हिमालय के संरक्षण पर सवाल खड़ा हो गया है।
राज्य के ढाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हैं तो पर्वतीय इलाके के तीन हजार के लगभग गांव खाली हो चुके हैं। सूरतेहाल यक्षप्रश्न ये कि जब इस हिमालयी क्षेत्र के गांवों में लोग ही नहीं रहेंगे तो इसका संरक्षण कौन करेगा। अब नई मुश्किल अनियोजित विकास ने खड़ी कर दी है।
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पर्यावरण व विकास के बीच सामंजस्य की बढ़ती खाई ने हिमालय की सेहत को कमजोर किया है। जून 2013 में आई आपदा के रूप में सूबा इसका दुष्परिणाम भी झेल चुका है। बावजूद इसके सरकारें चेत नहीं रहीं। ऐसी नीतियों का अभी भी अभाव है, जिससे हिमालयी क्षेत्र की सेहत भी महफूज रहे और स्थानीय जन की भागीदारी के साथ विकास का पहिया भी घूमता रहे।
हिमालय सिर्फ एक पर्वतीय श्रृंखला का नाम नहीं, बल्कि यह खुद में एक संस्कृति व सभ्यता को समेटे है। संस्कृति और समुदाय ऐसे सवाल हैं, जिनकी अब तक अनदेखी होती आ रही है। यूं कहें कि हिमालयी लोक को नीति नियंताओं ने हाशिये पर ही रखा है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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उत्तराखंड का सूरतेहाल भी इससे जुदा नहीं है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो इस हिमालयी राज्य के लोग प्रकृति प्रेमी हैं, दुश्मन नहीं। जल-जंगल व जमीन पर अधिकार के चलते वे इनसे अपनी जरूरतें पूरी करने के साथ ही इनका संरक्षण भी करते थे। वक्त ने करवट बदली वन कानून अस्तित्व में आए तो जन और वन के बीच यह दूरी बढ़ी।
रही-सही कसर पूरी कर दी अनियोजित विकास की अंधी दौड़ में पहाड़ और यहां रहने वाले लोगों के हितों की अनदेखी ने। नतीजा, बड़े पैमाने पर पलायन के चलते खाली होते गांवों के रूप में सामने आया।
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अब जरा नीति निर्धारकों की कार्यशैली पर भी नजर डालते हैं। उत्तराखंड बनने पर जोर-शोर से दावे हुए कि इस हिमालयी राज्य में बागवानी को महत्व दिया जाएगा। इससे आर्थिकी भी मजबूत होगी और पर्यावरण भी महफूज रहेगा, लेकिन यह सब ख्वाब ही रहा।
मूलभूत सुविधाओं के विकास को भी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं समझी गई। यदि ऐसा होता तो हजारों की संख्या में गांव सड़क, बिजली जैसी सुविधा से महरूम नहीं होते। वनों से मिलने वाले हक-हकूक पर तो अंकुश लगा ही, वन्यजीवों ने जीना और दुश्वार किया हुआ है।
राज्य गठन से अब तक 400 से ज्यादा लोग वन्यजीवों के हमले में मारे जा चुके हैं। इको सेंसेटिव जोन बनाए जाने से भी लोग उद्वेलित हैं। ऐसे अनेक मसले फिजां में तैर रहे हैं।
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बात समझने की है कि हिमालयी क्षेत्र के लिए आज एक समावेशी नजरिए की जरूरत है। कुदरत ने हिमालय को प्राकृतिक संसाधनों से मुक्त हाथों से नवाजा है। इन संसाधनों के उपयोग को इस प्रकार की नीतियां बने कि संसाधन भी संरक्षित रहें और विकास का क्रम भी चलता रहे।
योजनाओं को यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाने के साथ ही इनमें समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। साफ सी बात है कि समुदाय को नकारने की परिणति अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटे इस हिमालयी राज्य पर भारी पड़ सकती है। लिहाजा, जन की जरूरतों को नीति में शामिल कर ठोस कदम उठाने की दरकार है।
उत्तराखंड की तस्वीर
-2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के 258893 घरों में लटके ताले
-गुजरे 15 सालों में पर्वतीय क्षेत्रों में 15000 करोड़ रुपये खर्च, हासिल पलायन
-राज्य में पांच हजार से अधिक गांव आज भी विद्युत सुविधा से वंचित
-उत्तराखंड बनने से पहले 8.15 लाख हेक्टेयर में होती थी खेती, जो अब 7.01 लाख हेक्टेयर पर पहुंची
-हर साल ही औसतन 28 लोग वन्यजीवों के हमले में मारे जा रहे
-राज्य में 1800 प्राथमिक विद्यालय बंद होने के कगार पर
-सूबे में 14 ग्राम पंचायतों की आबादी 10 से 100 के बीच सिमटी, जबकि 160 में 100 से 200 के बीच
-वन अधिनियम के चलते अधर में लटकी हैं सात सौ से ज्यादा सड़कें
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