अगर ऐसा न होता, तो देश को शानदार गायक नहीं, पहलवान मिलता
'मन्ना डे', बेशक ये नाम बॉलीवुड व संगीत प्रेमियों के जहन में आते ही पुराने नगमों की धुन छिड़ जाती हो, बेशक आज उनके जाने के बाद भी सदियों तक उनके गाने दुनिया के कदमों को थिरकाने का काम करें लेकिन हकीकत ये है कि प्रबोध चंद्र डे, यानी 'मन्ना डे' का बचपन से रुझान किसी और तरफ था। यह था उनका पहला प्यार कुश्ती। जी ह
कोलकाता। 'मन्ना डे', बेशक ये नाम बॉलीवुड व संगीत प्रेमियों के जहन में आते ही पुराने नगमों की धुन छिड़ जाती हो, बेशक आज उनके जाने के बाद भी सदियों तक उनके गाने दुनिया के कदमों को थिरकाने का काम करें लेकिन हकीकत ये है कि प्रबोध चंद्र डे, यानी 'मन्ना डे' का बचपन से रुझान किसी और तरफ था। यह था उनका पहला प्यार कुश्ती। जी हां, संगीत की दुनिया में आने से पहले मन्ना डे एक पहलवान हुआ करते थे। अपने पहलवानी के दिनों में अगर एक हादसा ना हुआ होता तो शायद वो बॉलीवुड में कभी आते ही नहीं, बल्कि देश के एक बेहतरीन पहलवान होते।
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कोलकाता में पढ़ाई करते वक्त ही मन्ना डे का रुझान खेलों की तरफ काफी हुआ करता था और सबसे ज्यादा उनका ध्यान जिस खेल ने खींचा वह थी पहलवानी यानी कुश्ती। अपने शहर के एक कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने जमकर इस खेल को समय दिया और अपने गुरू गोबोरबाबू के मार्गदर्शन में इस कदर अपने हुनर को तराशा कि वो बंगाल कुश्ती चैंपियनशिप के फाइनल्स तक में पहुंचने में सफल रहे।
अपनी जिंदगी पर लिखी किताब 'मेमोरीज कम अलाइव' में मन्ना डे ने लिखा, 'मेरा लक्ष्य उस समय सिर्फ फाइनल जीतना और भारत के शानदार पहलवानों में अपना नाम शुमार करना था। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, संगीत ने मेरा दिल जीत लिया लेकिन हमेशा से ही मेरा सबसे बड़ा सपना एक दिग्गज पहलवान बनना ही था।' इस खेल में उनकी सबसे बड़ी बाधा थी उनकी कमजोर नजर, जब वह चश्मा लगाकर कुश्ती लड़ते थे तो कई बार उन्हें इसी वजह से चोट लग जाती थी।
एक ऐसे ही मैच के दौरान, एक हादसा हुआ जिसने सब कुछ पलट कर रख दिया। उस मैच में उनका चश्मा टूट गया और कांच के कुछ छोटे टुकड़े उनकी आंखे के ठीक नीचे गड़ गए। इस हादसे के बाद वो यह समझ गए कि उनका पहलवानी करने का सपना अब पूरा नहीं हो पाएगा इसलिए अपने दूसरे प्रेम यानी संगीत की तरफ ही रुझान बढ़ाना बेहतर विकल्प होगा।
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उस हादसे के बाद मन्ना डे ने खेल को अलविदा कहते हुए धुनों के पोखर में डुबकी लगानी शुरू कर दी और धीरे-धीरे वह बॉलीवुड के समंदर में एक जाना-पहचाना नाम बन गए। अपनी किताब में मन्ना डे उस हादसे और अपने उस बदलाव के फैसले के बारे में लिखते हैं कि, 'उस लम्हे को भुलाकर आगे बढ़ना सही नहीं था। मुझे खेल और संगीत में किसी एक को चुनना था, और मैंने संगीत को चुना।' मन्ना डे के अंकल कृष्ण चंद्र डे ही वो करीबी थे जिन्होंने संगीत की दुनिया में एक नई हस्ती को जन्म दिया और उसे 1942 की फिल्म 'तमन्ना' के जरिए बॉलीवुड में लॉन्च करने से पहले 'मन्ना डे' का नाम भी दिया।
इसके बाद एक सुनहरे सफर ने अपना रास्ता तय किया जिससे पूरा देश वाकिफ है। इस दौरान हिंदी और बंगाली में उन्होंने 3500 से ज्यादा गाने गाए। सर्वश्रेष्ठ गायक के लिए उन्होंने दो बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला और पद्म भूषण व दादासाहब फाल्के जैसे बड़े सम्मान से भी वह नवाजे गए।
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