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भोले शंकर के इस धाम से आने के बाद दोबारा जाने की हिम्मत नहीं कर पाओगे

भगवान शिव का एक ऐसा धाम भी है जहां पर कोई अगर एक बार होकर आ गया वो दोबारा जाने की हिम्मत नहीं करता, यहां हम ना कैलाश मानसरोवर और ना हीं अमरनाथ यात्रा की बात कर रहे हैं यहां हम...

By Abhishek Pratap SinghEdited By: Published: Fri, 24 Jun 2016 03:34 PM (IST)Updated: Fri, 24 Jun 2016 04:29 PM (IST)
भोले शंकर के इस धाम से आने के बाद दोबारा जाने की हिम्मत नहीं कर पाओगे

तिब्बत स्थित मानसरोवर कैलाश के बाद किन्नर कैलाश को ही दूसरा बडा कैलाश पर्वत माना जाता है। सावन का महीना शुरू होते ही हिमाचल की खतरनाक कही जाने वाली किन्नर कैलाश यात्रा शुरू हो जाती है। इस यात्रा के बारे में कहा जाता है कि इस यात्रा को अपने जीवन काल में आम आदमी एक ही बार करने की हिम्मत जुटा पाता है।

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इस स्थान को भगवान शिव शीतकालीन प्रवास स्थल माना जाता है। किन्नर कैलाश सदियों से हिंदू व बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था का केंद्र है। इस यात्रा के लिए देश भर से लाखों भक्त किन्नर कैलाश के दर्शन के लिए आते हैं। किन्नर कैलाश पर प्राकृतिक रूप से उगने वाले ब्रह्म कमल के हजारों पौधे देखे जा सकते हैं।

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भगवान शिव की तपोस्थली किन्नौर के बौद्ध लोगों और हिंदू भक्तों की आस्था का केंद्र किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग की ऊंचाई 40 फीट और चौड़ाई 16 फीट है। हर वर्ष सैकड़ों शिव भक्त जुलाई व अगस्त में जंगल व खतरनाक दुर्गम मार्ग से हो कर किन्नर कैलाश पहुचते हैं।

1993 में से शुरू हुई यात्रा
1993 से पहले इस स्थान पर आम लोगों के आने-जाने पर प्रतिबंध था। 1993 में पर्यटकों के लिए खोल दिया गया, जो 24000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां 40 फीट ऊंचे शिवलिंग हैं। यह हिंदू और बौद्ध दोनों के लिए पूजनीय स्थल है। इस शिवलिंग के चारों ओर परिक्रमा करने की इच्छा लिए हुए भारी संख्या में श्रद्धालु यहां पर आते हैं।

पौराणिक महत्व

किन्नर कैलाश के बारे में अनेक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वत था, जहां भगवान शंकर और अर्जुन का युद्ध हुआ था और अर्जुन को पासुपातास्त्रकी प्राप्ति हुई थी। यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने बनवास काल का अन्तिम समय यहीं पर गुजारा था।


रंग बदलता है शिवलिंग

शिवलिंग की एक चमत्कारी बात यह है कि दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाता है और फिर क्रमश:पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। किन्नौर वासी इस शिवलिंग के रंग बदलने को किसी दैविक शक्ति का चमत्कार मानते हैं, कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि यह एक स्फटिकीय रचना है और सूर्य की किरणों के विभिन्न कोणों में पडने के साथ ही यह चट्टान रंग बदलती नजर आती है।

ऐसे शुरू होती है यात्रा- पहला दिन
सबसे पहले सभी यात्रियों को इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस पोस्ट पर यात्रा के लिए अपना पंजीकरण कराना होता है। यह पोस्ट 8,727 फीट की ऊंचाई पर है। यह किन्नौर जिला मुख्यालय रेकांग प्यो से 41 किमी की दूरी पर है। उसके बाद लांबार के लिए प्रस्थान करना होता है। यह 9,678 फीट की ऊंचाई पर है। जो 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने के लिए खच्चरों का सहारा लिया जा सकता है।

दूसरा दिन
इसके उपरांत 11,319 फीट की ऊंचाई पर स्थित चारांग के लिए चढ़ाई करनी होती है। जिसमें कुल 8 घंटे लगते हैं। लांबार के बाद ज्यादा ऊंचाई के कारण पेड़ों की संख्या कम होती जाती है। चारांग गांव के शुरू होते ही सिंचाई और स्वास्थ्य विभाग का गेस्ट हाउस मिलता है, जिसके आसपास टेंटों में यात्री विश्राम करते हैं। इसके बाद 6 घंटे की चढ़ाई वाला ललांति (14,108) के लिए चढ़ाई शुरू हो जाती है।

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तीसरा दिन
चारांग से 2 किलोमीटर की ऊंचाई पर रंग्रिक तुंगमा का मंदिर स्थित है। इसके बारे में यह कहा जाता है कि बिना इस मंदिर के दर्शन किए हुए परिक्रमा अधूरी रहती है। इसके बद 14 घंटे लंबी चढ़ाई की शुरूआत हो जाती है।
चौथा दिन
इस दिन एक ओर जहां ललांति दर्रे से चारांग दर्रे के लिए लंबी चढ़ाई करनी होती है, वहीं दूसरी ओर चितकुल देवी की दर्शन हेतु लंबी दूरी तक उतरना होता है।

खतरनाक है यहां की परिक्रमा

किन्नर कैलाश को हिमाचल का बदरीनाथ भी कहा जाता है और इसे रॉक कैसल के नाम से भी जाना जाता है। इस शिवलिंग की परिक्रमा करना बड़े साहस और जोखिम का कार्य है। कई शिव भक्त जोखिम उठाते हुए स्वयं को रस्सियों से बांध कर यह परिक्रमा पूरी करते हैं। पूरे पर्वत का चक्कर लगाने में एक सप्ताह से दस दिन का समय लगता है।

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