लोकसभा से संयुक्त राष्ट्र तक लालफीते में जकड़ी है हिंदी
बेशक भूटान से लेकर जापान तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी में बोलते देखे गए। लेकिन हिंदी का गौरव बढ़ाने के लिए उन्हें घरेलू से लेकर विदेशी मोर्चो तक अभी बहुत कुछ करना शेष है।
मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। बेशक भूटान से लेकर जापान तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी में बोलते देखे गए। लेकिन हिंदी का गौरव बढ़ाने के लिए उन्हें घरेलू से लेकर विदेशी मोर्चो तक अभी बहुत कुछ करना शेष है।
प्रधानमंत्री की ठीक नाक के नीचे लोकसभा में बहसों के दौरान भले ही स्वयं मोदी सहित कई सांसद हिंदी में बोलते हों, लेकिन वहां आजतक हिंदी को आधिकारिक प्रवेश नहीं मिल सका है। मतलब यह कि भारतवर्ष की लोकसभा में आजादी के 67 वर्ष बाद भी राजभाषा समिति का गठन नहीं हो सका है।
नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान यह मुद्दा उठाने वाले प्रवासी संसार पत्रिका के संपादक राकेश पांडेय के अनुसार राज्यसभा में भी इस समिति का गठन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत के कार्यकाल में ही हो सका था। चूंकि उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा के सभापति होते हैं। लेकिन लोकसभा में हिंदीभाषी अध्यक्ष मीरा कुमार नौकरशाही के अड़ियल रवैये के कारण ऐसा नहीं कर सकीं।
अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भी हिंदी लालफीताशाही की शिकार है। संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को सातवीं आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का संकल्प 1975 में हुए पहले विश्व हिंदी सम्मेलन में लिया गया था। उसके बाद हुए आठ विश्व हिंदी सम्मेलनों में यह संकल्प लगातार दोहराया जाता रहा है। लेकिन इस संकल्प को अमल में लाने के लिए अब तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका है। पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन में भी इस प्रस्ताव पर समयबद्ध कार्ययोजना के साथ आगे बढ़ने का संकल्प लिया गया था। अब तो दसवें सम्मेलन का समय भी नजदीक आने लगा है। इस संकल्प को पूरा करने की दिशा में कितना काम हुआ है, पता नहीं।
बता दें कि नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन में ही विभिन्न देशों में हिंदी शिक्षण से संबद्ध विश्वविद्यालयों, पाठशालाओं एवं शैक्षणिक संस्थाओं का एक डाटाबेस तैयार करने की जिम्मेदारी मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय को सौंपी गई थी। विडंबना यह है कि इस सचिवालय के पास अभी तक अपना भवन भी नहीं है। भारत और मॉरीशस सरकारों के बीच 20 अगस्त, 1999 को हुए समझौते के अनुसार मॉरीशस सरकार द्वारा दिए गए भूखंड पर भवन भारत सरकार को बनवाना है। लेकिन 15 वर्षो में इस दिशा में भी कोई प्रगति नहीं हो सकी है। इसी प्रकार कई देशों के भारतीय दूतावासों में हिंदी अधिकारियों के पद भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। वहां नई नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं।