राष्ट्रीय हिन्दी सेवी का पैत्रक गांव उपेक्षित
जागरण संवाददाता, पीलीभीत : राष्ट्रीय हिन्दी सेवी का पुरस्कार पाने वाले साहित्यकार डा. शंभु शरण शुक्ल अभीत के पैत्रक गांव में उनका कोई स्मारक अभी तक नहीं बन सका है। शहर की एकता नगर कालोनी के जिस मकान में उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया, वहां उनकी पत्नी व दोनों बेटियां स्मृति को संजोये हुए हैं। गली जैसी उनके समय थी, वैसी ही अब भी है। उनके निवास दिव्य गीतिका में सब कुछ पहले जैसा ही है। बदलाव सिर्फ इतना हुआ कि वहां डा. शुक्ल की साहित्यिक गतिविधियां नहीं दिख रहीं।
ललौरीखेड़ा क्षेत्र के गांव डंडिया शुक्ल के मूल निवासी डा. शंभू शरण शुक्ल का बचपन गांव में ही बीता। उनके पूर्वज जमींदार थे। पुश्तैनी मकान आज भी वैसा ही है। इस समय पुश्तैनी मकान में डा. शुक्ल की भाभी रह रही हैं। गांव में डा. शुक्ल की स्मृति में अभी तक कुछ ऐसा नहीं किया गया जिससे पूरे देश में प्रसिद्धि पाने वाले इस साहित्यकार के गांव की अलग पहचान बनती। डा. शुक्ल शहर के उपाधि महाविद्यालय में 31 वर्षो तक हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। शिक्षण के साथ-साथ वह साहित्य के क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे। देश-विदेश की कई संस्थाओं से जुड़कर उन्होंने कई दशकों तक हिन्दी की सेवा की। बीस सितंबर-2000 को उन्हें दिल्ली में आयोजित सस्त्रशताब्दि विश्व हिन्दी सम्मेलन में राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सम्मान से नवाजा गया। इसके अलावा तमाम अन्य संस्थाओं से भी वह समय-समय पर पुरस्कृत होते रहे। साहित्य के क्षेत्र में तराई में उनकी अलग पहचान रही। लोक गीतों एवं लोक संस्कृति के प्रति वह हमेशा समर्पित रहे।
डा. शुक्ल का रचना संसार
खंड काव्य : स्वातंत्रय गौरव गीतिका
महादेवी वर्मा और स्मृति की रेखाएं
जैनेंद्र और उनका त्यागपत्र
विश्वास का बल : एक अध्ययन
थारू लोकगीत : सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक, सोलह सिंगार, रघुवंशम, हम भी हैं दरबारी। इसके अलावा उन्होंने अनेक पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। रूहेलखंड विश्वविद्यालय की पाठ्य पुस्तक समिति के भी सदस्य रहे। आकाशवाणी की कार्यक्रम समिति में भी शामिल रहे।
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तीस छात्र-छात्राओं को कराई पीएचडी
डा. शुक्ल ने उपाधि महाविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष पद पर रहने के दौरान तीस छात्र-छात्राओं को अपने निर्देशन में पीएचडी उपाधि के लिए विभिन्न विषयों पर शोध कराया। उन्होंने विभिन्न विषयों पर तीन लघु शोध प्रबंध भी लिखे।
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उस शनिवार की वह मनहूस रात
वर्ष 1998 में उपाधि महाविद्यालय से सेवानिवृत्त के बाद डा. शुक्ल ने खुद को पूरी तरह साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया था। विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से वह मातृभाषा हिन्दी की सेवा में लगे रहे। वर्ष 2011 के दौरान वह अस्वस्थ रहने लगे। शनिवार 13 अक्तूबर 2012 की रात उन्होंने अपने निवास पर अंतिम सांस ली।
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