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अखिलेश सरकार भी मायावती के ढर्रे पर

[राज बहादुर सिंह]। सपा सरकार की शुरुआत तो शानदार और एक हद तक आदर्श थी लेकिन फिर सब कुछ बदलता गया और अखिलेश यादव सरकार भी पूर्ववर्ती मायावती सरकार के ढर्रे पर आ गई। शोर-शराबे के बीच बिना चर्चा के बजट पारित कराना अखिलेश सरकार को भी भाने लगा है। पूर्ण बहुमत की बसपा सरकार ने 21 मई 2007 से 26 नवंबर 2011 के बीच पंद्रहवीं विधान सभा की केवल

By Edited By: Published: Thu, 10 Jul 2014 10:26 AM (IST)Updated: Thu, 10 Jul 2014 10:40 AM (IST)
अखिलेश सरकार भी मायावती के ढर्रे पर

लखनऊ [राज बहादुर सिंह]। सपा सरकार की शुरुआत तो शानदार और एक हद तक आदर्श थी लेकिन फिर सब कुछ बदलता गया और अखिलेश यादव सरकार भी पूर्ववर्ती मायावती सरकार के ढर्रे पर आ गई। शोर-शराबे के बीच बिना चर्चा के बजट पारित कराना अखिलेश सरकार को भी भाने लगा है। पूर्ण बहुमत की बसपा सरकार ने 21 मई 2007 से 26 नवंबर 2011 के बीच पंद्रहवीं विधान सभा की केवल 95 बैठकें की जबकि अखिलेश यादव सरकार ने सोलहवीं विधान सभा में 28 मई 2012 से सात जुलाई 2014 के बीच अब तक 76 बैठकें कर ली हैं जबकि विधान सभा का कार्यकाल अभी आधे पड़ाव तक पहुंच रहा है।

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मायावती सरकार के दौरान विधान सभा की कार्यवाही 463 घंटे 58 मिनट चली और सदन का स्थगन 28 घंटे 40 मिनट रहा। इसकी तुलना में अखिलेश सरकार के कार्यकाल में विधान सभा की कार्यवाही अब तक 402 घंटे और 51 मिनट तक चली है और स्थगन 16 घंटे चार मिनट रहा है। जाहिर है कि सदन चलाने में रुचि के लिहाज से अखिलेश सरकार का रिकार्ड बेहतर नजर आता है। मायावती सरकार ने पांच साल में विधान सभा के केवल 12 सत्र आहूत किए। इनमें आठ फरवरी 2008 से 15 मार्च 2008 की अवधि बजट सत्र में सर्वाधिक 18 बैठकें हुई। 27 जून 2007 से 25 जुलाई 2007 के सत्र में 15 उपवेशन हुए जबकि 21 जनवरी 2010 से तीन मार्च के सत्र में 14 बैठकें हुई जबकि शेष में से किसी भी सत्र की बैठकें दहाई की संख्या तक नहीं पहुंचीं। इसके मुकाबले अखिलेश सरकार अब तक सात सत्र आहूत कर चुकी है इसके 24 फरवरी 2013 से नौ अप्रैल 2013 तक चले सत्र में 23 बैठकें हुई। दरअसल अखिलेश सरकार की शुरुआत प्रभावशाली रही थी और 28 मई 2012 से सात जुलाई 2012 के बीच आहूत सत्र में 21 बैठकें हुई। इस बार खास बात यह थी कि इस दौरान सदन की कार्यवाही एक बार भी स्थगित नहीं हुई।

शुरुआत मुलायम के समय में हुई

विपक्ष के हंगामे को दरकिनार बिना चर्चा के सभी बजट एक झटके में पारित कराने का पहला अनुभव मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में 1995 में तब देखने को मिला जब धनीराम वर्मा विधान सभा अध्यक्ष थे। बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार के दौरान हंगामे के बीच बिना चर्चा के एक ही दिन में जट पारित कराने का दौर चला तो सात जुलाई को अखिलेश सरकार भी इसी ढर्रे पर आ गई।

विपक्ष भी है जिम्मेदार

सत्ता पक्ष को बिना चर्चा के बजट पास कराने का अवसर देने के लिए विपक्ष भी कम जिम्मेदार नहीं होता। बहुधा ऐसा आभास होता है जैसे पक्ष विपक्ष में कोई गुप्त संधि हुई हो कि एक हंगामा करे दूसरा विधायी कार्य निपटाए और सदन आहूत करने की बाध्यता का पालन हो जाने के बाद दोनों अपने-अपने घर रवाना हो जाएं।

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