सुरताली के सुरीले सपने
गोल-गोल पृथ्वी नाच रही है, रोशनी के गोल छल्ले बन रहे हैं। फूलों की रंगीन पंखुड़ियां तितलियों की तरह उड़ रही हैं। पूरा शरीर रुई के फाहे में बदल गया है। हल्की..और हल्की..हवा ने जमीन से ऊपर उठा लिया है। छन्न.छन्न..की सुरीली आवाज.अचानक छन्न..
गोल-गोल पृथ्वी नाच रही है, रोशनी के गोल छल्ले बन रहे हैं। फूलों की रंगीन पंखुड़ियां तितलियों की तरह उड़ रही हैं। पूरा शरीर रुई के फाहे में बदल गया है। हल्की..और हल्की..हवा ने जमीन से ऊपर उठा लिया है। छन्न.छन्न..की सुरीली आवाज.अचानक छन्न..
चिंहुक कर उठ गई सुहानी। नींद टूट गई। आह..इतना सुंदर, सुरीला सपना देख रही थी। घुंघरू की ये आवाज कहां से आई। वो तो सपने में नाच रही थी। कमरे में हल्का अंधेरा था। वह देख सकती थी साफ-साफ। 14 वर्षीय सुहानी को अपने नृत्य कथक से इतना लगाव था कि छुट्टी में दादी के घर आकर भी रोज रियाज करना नहीं भूली थी।
अभी दादी के यहां आए हुए पांच दिन ही हुए हैं। उसे छोटे शहर की शांति बहुत भाई। यह जगह तब और अच्छी लगती है जब कोई ऐसा काम करना हो जिसमें शांति और सुकून चाहिए। यहां तो सपने भी सुरीले आते हैं। तभी तो आज भी उसे सपने में घुंघरू खनक रहे थे। छन्न..छन्न..आह..लेकिन सपने की आवाज से कैसे जगी वह। उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई। बॉलकनी का गेट हल्का सा खुला था।
कौन होगा इस वक्त वहां..माथा ठनका। सिहरन भी हुई। इतनी रात को कोई बंद बॉलकनी में कैसे आ सकता है। उसने बेड से उठते हुए बाईं तरफ नीचे देखा। वहां खाली बिस्तर जमीन पर पड़ा था। 12 वर्षीय सुरताली गायब थी वहां से। सुरताली। अजीब सा नाम है न। सुहानी को पहले दिन अजीब सा लगा था। नाम सुनते ही उसके मुंह से निकला-‘सुर..बजाओ ताली..’ और अनाथ सुरताली के होठों पर मुस्कान कौंध कर रह गई। उदासी उसके चेहरे का स्थायी भाव लगा उसे। ‘ये क्या..?’ वह भौंचक रह गई। उसे सहसा यकीन ही नहीं हुआ। सुरताली..!! कथक की ड्रेस पहने, पूरा चेहरा मेकअप से पुता हुआ, घुंघरू पैरों में बंधी। हौले हौले बोल.. ‘ता ता तत थई..’ और मुद्राएं जैसे सुहानी की होती थीं। सुहानी को यकीन ही नहीं हो रहा था। उसे तेज गुस्सा आया और वह जोर से चीखी.. ‘सुरताली..क्या कर रही हो तुम। मेरे कपड़े, मेरे घुंघरु..हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी हाथ लगाने की..?’ सुरताली के सुर थम गए थे। वह कंपकंपा रही थी। सुहानी की दहाड़ सुनते ही वह कांपती हुई जमीन पर गिर पड़ी। देखते ही देखते पूरा घर वहां इकठ्ठा हो गया। दादी की आंखें लाल हो रही थीं। बुआ तो जैसे सुरताली को कच्चा चबा जाने पर आमादा थीं। सुहानी अपने घुंघरू को बार बार प्रणाम कर रही थी, जैसे सुरताली के पांवों ने उन्हें अपवित्र कर दिया हो। बुआ चिल्ला रही थीं-‘मेरी लिपिस्टक इसने तोड़ डाली। सारा पोत लिया। अब कौन लाकर देगा तेरा बाप..लिपिस्टक जूठी हो जाती है..सत्यानाश रे छोकरी.बुला इसकी मां को..पैसे काटो इसके..’
दादी हैरान थीं कि ये इत्ती-सी लड़की इतनी हिम्मत कैसे कर सकती है। सुरताली जार-जार रोए जा रही थी। उसके मुंह से कोई बोल नहीं फूट रहे थे। दादा जी सब कुछ चकित होकर देख रहे थे। कुछ ही दिन पहले इस लड़की को गांव से बुलवाया था, घरेलू कामकाज के लिए। सुरताली की मां उसे खुद छोड़ कर गई थी। जाते समय उसकी मां के चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे पीछा छुड़ा कर उसने राहत की सांस ली हो।
सुरताली जरूर उदास थी, लेकिन जल्दी ही वह घर में घुलमिल गई थी। सुहानी के आने से पहले उसका सारा वक्त या तो बुआ-दादी की फरमाइश पूरा करते बीतता या चुपके से टीवी देखते बीतता। दादा जी ने नोटिस किया था कि वह अक्सर काम से जी चुरा कर टीवी की तरफ एकटक देखती रहती। एकाध बार बुआ और दादी ने फटकारा था.. ‘जीवन में टीवी देखा है कभी.क्या टुकुर-टुकुर देखती रहती है। कुछ समझ में आएगा तुङो कभी..’ ‘अंधी है क्या..तेरा बस चले तो दिन भर टीवी में ही घुसी रहेगी..गांव में तेरे दिन भर टीवी ही चलता रहता था क्या..जा वहीं..दिन भर टीवी देखियो..पेट भर जाएगा पूरे खानदान का..’ उसकी हरकतों, लापरवाहियों पर कुपित दादी दांत पीसतीं और सुरताली दिन भर अपमान का घूंट पीती रहती।
सुहानी चीख-चिल्ला रही थी। एक मामूली नौकरानी की इतनी औकात कि उसकी ड्रेस पहन ले। सुहानी को ध्यान आया कि शाम को जब भी वह सीडी बजाकर कथक का रियाज करती, सुरताली सब काम छोड़ कर वहां जमीन पर जम जाती। अपने हाथों को भी वैसे-वैसे करती जैसे सुहानी। सुहानी उसकी हरकतें देखती और मुस्कुरा पड़ती। इसे वह स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानती। दादी जरूर चिल्लातीं सुरताली पर- ‘नाच ही देखती रहेगी क्या..तुङो कौन सा शोवना नारायण बनना है। हीरोइन बनेगी क्या..चल उठ..कपड़े उतार कर ला..’ सुरताली तब तक नहीं उठती वहां से जब तक रियाज खत्म न हो जाता। उसे जो आनंद आता था, इसकी कल्पना घर में कोई नहीं कर सकता था। इसी आनंद के भरोसे वह अपमान के बोल सह जाती।
आधी रात को तूफान बाहर शांत हो चुका था। बस बुआ की हल्की आवाजें आ रही थीं.. ‘इसको रात भर बाहर बिठा दो, अंधेरे में रहेगी तो समझ में आएगा। होश ठिकाने आ जाएगा।’ सुहानी को अजीब लग रहा था। उसे सुरताली की निरीह आंखें याद आने लगीं। उसे बुआ और दादी का व्यवहार सुरताली के लिए बहुत खराब लगा, उसे लगा कैसे इतनी बड़ी होकर इतनी छोटी बच्ची के साथ दादी और बुआ इतना क्रूर व्यवहार कर सकती हैं? उसे लगा कल उसकी मां आएगी। उसकी शिकायत होगी और शायद वह चली जाए। पांच दिन बाद सुहानी को भी तो जाना है। वह शहर लौट जाएगी। सुरताली क्या करेगी फिर। सुहानी के बालमन को बहुत सारे सवाल मथ रहे थे। सुरताली के साथ ऐसा क्यों होता है? उसके मन से अपनी दादी और बुआ के लिए आदर कम होने लगा। आखिर क्यों सुरताली जैसी लड़कियों के सपनों के साथ भेदभाव होता है? वह पढ़ती क्यों नहीं। घरों में काम क्यों करती है? क्यों उसकी मां उसे यहां छोड़ कर चंपत हो गई?
दरवाजे पर हल्की सी आहट हुई। दादा जी प्रकट हुए। एक दादा जी ही थे, जिन्होंने कभी सुरताली पर गुस्सा नहीं किया। सुहानी भी कहां गुस्सा करती, पर उसने उस घुंघरू को अपने पांव में बांधा जिसे पूजा करके डांसर मैम ने दिया था। दादा जी मुस्कुरा रहे थे और सुहानी उनकी बातें सुनकर बदल रही थी। उसे लगा उसके भीतर कोई नई खिड़की खुली है जहां से करुणा भरी हवा भीतर आ रही है। वह उठी..। देखा, सुरताली दरवाजे के पास उकड़ूं बैठी थी। दादी और बुआ अपने कमरों में जा चुके थे। अगली सुबह सबकी नींद देर से खुली। दादी के भजन की जगह घर में घुंघरू खनक रहे थे। दादा जी पेपर पढ़ रहे थे। सुहानी ताली बजा-बजा कर बोल दे रही थी और सुरताली घुंघरू बांधे नाच रही थी, मगन, बेखौफ और बेसुध।
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