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    खुद से अपेक्षाएं

    झिलमिलाती धूप में राजा के पैर जलने लगे थे। राजा को लगा था कि वह अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए धूप में चल लेगा। मगर यह तो उसके एकदम विपरीत हो गया।

    By Rahul SharmaEdited By: Updated: Thu, 13 Oct 2016 09:31 AM (IST)

    झिलमिलाती धूप में राजा के पैर जलने लगे थे। राजा को लगा था कि वह अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए धूप में चल लेगा। मगर यह तो उसके एकदम विपरीत हो गया। यह उसके साथ क्या हो रहा था? कहां तो राजा को लग रहा था कि वह जनता के सुख-दुख को समझेगा! जनता को उनकी तकलीफों से मुक्ति दिलाएगा! यहां तो वह खुद ही फंस गया था। सूरज अंगारे बरसा रहा था और प्यास के कारण उसका गला भी सूख गया था। मगर यह केवल उसी के साथ क्यों हो रहा है? उसके आस-पास भी तो कई लोग चल रहे हैं, वे तो एकदम सही तरीके से चल रहे हैं। न तो उनके पैर जल रहे हैं और न ही उनके सिर पर धूप लग रही है। फिर वह क्यों परेशान है?

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    राजा ने जब इस बात की घोषणा दरबार में की थी कि वह जनता के सुख-दुख का पता लगाने के लिए उनके बीच जाएगा, उनकी तकलीफों को खुद महसूस करेगा, तो महामंत्री ने राजा को सलाह भी दी थी कि वह ऐसा न करें। मगर राजा को अपने पिता की बात ध्यान थी, जिन्होंने उसे गद्दी सौंपते हुए कहा था कि ‘राजा का प्रमुख कर्तव्य होता है जनता की सेवा करना, जनता के सुख-दुख को देखना।’ राजा ने अपने पिता को वचन दिया था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरेगा। राजा के पिता बहुत ही दयालु और प्रजा का हित सोचने वाले थे। उनके राज्य में त्वरित न्याय मिलता था। राजा ने अपने पिता के शासन को देखकर खुद के लिए तमाम अपेक्षाएं उत्पन्न कर ली थीं। राजा को लगता था कि उसे अपने पिता के नक्शेकदम पर चलना चाहिए। अपने पिता की अपेक्षाओं का भार उसने अपने कंधे पर ले लिया था, बिना यह जाने कि वह उन्हें उठा पाने में सक्षम है या नहीं।

    जब तक राजा के पिता जिंदा रहे थे, तब तक राजा ने अपने राजमहल से अकेले बाहर एक कदम भी नहीं रखा था। सारे सुख-साधन उसके एक ताली बजाते ही हाजिर हो जाते थे। वह केवल और केवल अपने लोगों पर हुकुम चलाया करता था, जबकि उसके पिता हमेशा उससे कहते थे कि बेटा राजा के तमाम ऐशो-आराम आरामतलबी के लिए नहीं होते हैं। उन्हें हासिल करने के लिए काफी मेहनत करनी होती है। राजा को समझ में नहीं आता कि आखिर पिता ऐसा क्यों बोल रहे हैं? धीरे-धीरे बड़े राजा की उम्र बढ़ने लगी और राजकुमार को गद्दी पर बैठाने की बातें होने लगीं। राज पुरोहित ने एक दिन राजकुमार को जिम्मेदारी सौंपने का दिन तय कर दिया और इस प्रकार वह राजा बन गया। जैसे ही राजकुमार के सिर पर मुकुट रखा गया, वैसे ही उसके अंदर जिम्मेदारी की एक लहर उत्पन्न हो गयी। राजा को लगा कि अब उसके पास उसकी जनता की जिम्मेदारी है और उसने खुद से कई अपेक्षाएं और उम्मीदें पाल लीं।

    और अंतत: वह दिन आया जब उसका सबसे पहला दरबार लगा। कल तक वह वहां पर अपने पिता के बगल वाली छोटी कुर्सी पर बैठता था, मगर आज!
    आज तो वह खुद ही राजा बना बैठा था। हर तरफ उसकी जय-जयकार हो रही थी। उसने देखा कि उसके दरबार में आने वाली आम जनता अपनी आंखों में उम्मीदें लेकर आई थी। वह भी उन उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता था, उन उम्मीदों को पूरा करना उसने अपनी जिंदगी का लक्ष्य बना लिया। उसने घोषणा की कि वह अपनी जनता का सुख-दु:ख जानने के लिए सड़कों पर भेष बदल कर जाएगा और जो काम करने में गुप्तचर विफल हो रहे हैं, वह खुद करेगा! ‘राजन, आप का उद्देश्य सही है, परंतु यह व्यावहारिक नहीं है!’ महामंत्री ने राजा को सलाह देते हुए कहा। ‘किस प्रकार यह व्यावहारिक नहीं है महामंत्री?’ राजा ने प्रश्न किया। ‘राजन, आपने अभी तक अकेले बाहर कदम नहीं रखा है। आपको सड़क के रास्ते भी नहीं पता हैं। फिर आपको अभी राजपाट के काम भी सीखने हैं!’ महामंत्री ने राजा से बात करते हुए कहा। ‘आपकी बात अपनी जगह पर ठीक है, परंतु मुझे लगता है कि मैं अपनी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा!’ राजा ने अपना निर्णय देते हुए कहा। ‘ठीक है राजन, जैसी आपकी मर्जी!’ महामंत्री ने हथियार डालते हुए कहा। ‘राजा आप हैं, हम तो आपकी प्रजा हैं और जो भी आप सोचेंगे, प्रजा की भलाई के लिए ही सोचेंगे!’ महामंत्री ने कहा।

    राजा ने अपनी इस योजना को पूरा करने के लिए कोई भी ठोस रणनीति नहीं बनाई। बस भेष बदला और निकल पड़ा। एक दिन रात में वह गुप्तचर का भेष बनाए जा रहा था कि उसके पीछे कुत्ते पड़ गए। बहुत ही मुश्किल से वह खुद को बचा पाया। रात में चलने के लिए उसने उन रास्तों पर जाने का अभ्यास भी नहीं किया था। उसे महामंत्री की बात याद आई, मगर वह शांत रहा। उस रात उसे कुत्तों ने खूब दौड़ाया। उसकी जान बहुत मुश्किल से बची। अगले दिन उसने महामंत्री से बात की, महामंत्री ने कहा , ‘राजन, आपको उचित सलाह के बाद ही निकलना चाहिए था। अब आप बाहर न निकलिएगा।’

    मगर राजा ने उसकी बात न मानते हुए कहा, ‘हो सकता है मुझे रात में परेशानी हुई हो, मगर दिन में तो कुछ नहीं होता न! मैं दिन में बाहर निकलूंगा!’ राजा ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा। ‘आप नहीं जानते, मैं खुद की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता हूं। ’ राजा ने हाथ मसलते हुए महामंत्री से कहा। ‘राजन, मैं आपकी बात को समझ रहा हूं, मगर आपको पूरी तैयारी के साथ और कुशल प्रबंधन के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए।’ महामंत्री ने समझाते हुए कहा। ‘क्या तैयारी? क्या प्रबंधन? छोड़िये महामंत्री जी!’ राजा ने उपहास उड़ाते हुए कहा। अगले दिन राजा फिर से निकला, मगर इस बार दिन में निकला। मगर अभी तक वह केवल रथ में बैठकर ही निकलता था, आज वह खुले में निकला। उसे धूप में निकलने की आदत नहीं थी।

    आज भी परेशान होकर जब वह वापस दरबार में आया, तो महामंत्री से राजा ने कहा, ‘आप सही कहते हैं महामंत्री जी। हमें अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें सही तरीके से लागू भी करना चाहिए। उचित तैयारी के साथ ही मैदान में उतरना चाहिए।’ महामंत्री के साथ पूरे दरबार ने राजा की इस बात का समर्थन करते हुए कहा ‘जी राजन, हम तभी सफल होंगे, जब हम अपनी अपेक्षाओं का प्रबंधन कुशलतापूर्वक कर सकेंगे।’
    गीताश्री

    अभ्यास प्रश्न
    नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिख कर संस्कारशाला की परीक्षा का अभ्यास करें...
    1. अपेक्षाएं कैसी होनी चाहिए?
    2. अपेक्षाओं की पूर्ति किस प्रकार करनी चाहिए?
    3. अपेक्षाओं का प्रबंधन किस प्रकार करना चाहिए?

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