क्या आप जानते हैंं, क्यों झूठ बोलते हैं बच्चे?
बाल मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों में झूठ बोलने की आदत के पीछे कहीं न कहीं माता-पिता या अभिभावक ही जिम्मेदार होते हैं...
भोपाल में रहने वाली संगीता सिंह कहती हैं कि पहले मुझे पता नहीं था कि मेरा बेटी भी झूठ बोलती है, लेकिन एक बार जब मैं पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग के लिए अपने आठ वर्षीया बेटी के स्कूल गई तो मुझे मालूम हुआ कि मैथ्स के क्लास टेस्ट में वह फेल हो गयी है। उसे घर पर दिखाने के लिए टेस्ट-पेपर दिया गया था, पर उसने मुझसे कहा कि पिछले सप्ताह मैम छुट्टी पर थीं, इसलिए मैथ्स का टेस्ट नहीं हो पाया। अब मुझे महसूस होता है कि इससे पहले भी वह मुझसे कई बार झूठ बोल चुकी है। समझ नहीं आता कि वह ऐसा क्यों करती है?
बाल मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों की ऐसी आदतों के लिए कहीं न कहीं उनके पैरेंट्स ही जिम्मेदार होते हैं। जब बच्चे अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते तो उनके मन में यह डर बना रहता है कि अगर यह बात मम्मी-पापा को मालूम हो गई तो वे मुझसे बहुत नाराज होंगे। फिर सजा और डांट से बचने के लिए बच्चे झूठ बोलते हैं।ज्यादातर परिवारों में गुड ब्वॉय या गुड गर्ल के लिए कुछ खास तरह के मानक निर्धारित किए जाते हैं। मसलन परीक्षा में हमेशा 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाना, अपनी चीजें व्यवस्थित रखना और पैरेंट्स की हर बात मानना आदि, जो बच्चे किसी वजह से ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अयोग्य और असफल करार दिया जाता है। ऐसे बच्चे बड़ों की प्रशंसा, शाबाशी और पुरस्कार से वंचित रखे जाते हैं। केवल अपने परिवार में ही नहीं, बल्कि स्कूल और समाज में भी उन्हें निरंतर तिरस्कार झेलना पड़ता है।
पैरेंट्स कभी भी बच्चों की इस समस्या को गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते कि आखिर उनका बच्चा झूठ बोलने पर मजबूर क्यों होता है? आज कड़ी प्रतियोगिता के इस दौर में बच्चे खुद को रिजेक्ट किए जाने के भय से त्रस्त हैं। उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि अगर वे परीक्षा में अच्छे अंक नहीं लाएंगे तो क्लास में दूसरे बच्चे और टीचर्स उनका मजाक उड़ाएंगे। घर में भी डांट पड़ेगी। ऐसे में माक्र्स नहीं आते तो अपमानित होने के भय से उसे मजबूरन झूठ का सहारा लेना पड़ता है। अगर हम अपने बच्चे को झूठ बोलने की आदत से बचाना चाहते हैं तो सबसे पहले उसकी कमियों को देखना, समझना और स्वीकारना जरूरी है।
यहां मूल समस्या यह है कि आज के पैरेंट्स हार को स्वीकारना नहीं चाहते और उन्हें देखकर उनके बच्चे भी यही सीखते हैं। चाहे खेल हो या पढ़ाई, बच्चों को उसकी प्रक्रिया में जरा सी दिलचस्पी नहीं होती, वे सिर्फ अच्छा रिजल्ट चाहते हैं। ऐसे में पैरेंट्स की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों के मन में कार्र्यों के प्रति स्वाभाविक दिलचस्पी पैदा करें। उन्हें नंबर लाने के बजाय सीखने को प्रेरित करें। उनके हर अच्छे प्रयास की प्रशंसा करें। उन्हें जीत की तरह, हार को भी सहजता से स्वीकारना सिखाएं। अपने बच्चे को उसकी खूबियों और खामियों के साथ स्वीकारें। उससे बहुत ज्यादा अपेक्षाएं न रखें। अगर कभी उससे कोई गलती हो भी जाए तो उसे डांटने के बजाय प्यार से समझाएं। आपके इन प्रयासों से धीरे-धीरे उसकी यह आदत अपने आप छूट जाएगी।
[गगनदीप कौर, चाइल्ड एंड क्लीनिकल साइकोलाजिस्ट ]