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रिश्तों का जानने के लिए रिश्ते बनाने जरूरी नहीं: एकता कपूर

बोलचाल की भाषा में भले ही टीवी को 'बुद्धू बक्सा' कहा जाता है, पर असलियत में इसमें जबरदस्त जरूरत होती है बुद्धि की। टीवी को ऊंचा स्केल देने में एकता कपूर ने बड़ी भूमिका निभाई है। पब्लिक की नब्ज को अच्छी तरह से समझने वाली इस हरफनमौला प्रोड्यूसर से साक्षात्कार

By Monika SharmaEdited By: Published: Mon, 15 Dec 2014 01:17 PM (IST)Updated: Mon, 15 Dec 2014 01:53 PM (IST)
रिश्तों का जानने के लिए रिश्ते बनाने जरूरी नहीं:  एकता कपूर

बोलचाल की भाषा में भले ही टीवी को 'बुद्धू बक्सा' कहा जाता है, पर असलियत में इसमें जबरदस्त जरूरत होती है बुद्धि की। टीवी को ऊंचा स्केल देने में एकता कपूर ने बड़ी भूमिका निभाई है। पब्लिक की नब्ज को अच्छी तरह से समझने वाली इस हरफनमौला प्रोड्यूसर से साक्षात्कार के अंश..

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इन दिनों आपके सभी धारावाहिकों के टाइटल लिरिकल (गीतात्मक) होते हैं। कोई खास वजह?

आज की तारीख में हर चैनल कम से कम नौ या दस शो दिखा रहा है। नौ बड़े मनोरंजक चैनल तो हैं ही। ऐसे में 90 शो में से हमारे शो का टाइटल याद रखना दर्शकों के लिए मुश्किल है। इसे आसान बनाने के लिए टाइटल लिरिकल रखना पड़ता है।

धारावाहिकों में तो टाइटल लिरिकल होते हैं पर फिल्मों के मामले में ऐसा नहीं होता। क्या दोनों की ऑडियंस अलग-अलग है?

फिल्में स्ट्रॉन्ग प्रमोशन के साथ आती हैं। उनके संग बड़े सितारे और प्रोडक्शन हाउस जुड़े होते हैं। टीवी के मामले में ऑडियंस की रिलेटिबिलिटी होनी जरूरी है। हम फिल्मों जैसा कंटेंट व टाइटिल नहीं रख सकते। हम टीवी के जरिए लोगों के घरों में जाते हैं। हमें कई बार उनके प्वाइंट ऑफ व्यू से भी सोचना पड़ता है।

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...यानी टीवी और फिल्मों के लिए आपकी रणनीति स्पष्ट तौर पर अलग-अलग है?

जी हां। दोनों के लिए अलग विंग हैं। बालाजी टेलीफिल्म्स की अलग पहचान है। फिल्मों के लिए जो हमारा विंग ऑल्ट इंटरटेनमेंट है, उसकी अलग आइडेंटिटी है। हम फिल्में तो 'लव सेक्स और धोखा' बना सकते हैं, मगर टीवी पर वैसी कहानी या चित्रण कतई मुमकिन नहीं।

आपका झुकाव आमतौर पर मैच्योर लव स्टोरी पर ज्यादा रहता है। क्या टीवी पर टीनएज लवस्टोरी की गुंजाइश नहीं है?

है...मैं तो दोनों कर रही हूं। मसलन, 'कितनी मोहब्बत है' युवाओं की प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है। मैंने 'प्यार की एक नई कहानी' भी बनाई, पर मेरा मानना है कि उनमें गहराई नहीं आती। युवा प्यार को लेकर बहुत संजीदा नहीं हैं। एक लंबी कहानी चलनी हो, तो वह चाहे 'कसौटी जिंदगी की' हो या 'बड़े अच्छे लगते हैं' हो, सब 40 पार की प्रेम कहानी हैं। मेरा मानना है कि 28 साल की उम्र के बाद से रियल लव का एहसास होता है या उसे निभाने की कुव्वत होती है। ऑडियंस को अब सतही चीजों में दिलचस्पी नहीं है। मुझे खुद भी गहरे संदेश वाली कहानियां भाती हैं। मसलन, 'ये हैं मोहब्बतें' का प्लॉट मुझे बहुत पसंद आया कि क्या एक औरत जिसका बच्चा नहीं है, वह मां की जिम्मेदारी नहीं निभा सकती? ऐसे ही 'इतना करो ना मुझे प्यार' में यह दिखाया गया कि एक कपल के बीच तलाक कैसे हो सकता है, जबकि दोनों के बच्चे हैं? दोनों अलग हुए हैं मगर वे फिर कहीं और मूव ऑन नहीं हुए हैं।

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इस गहराई का नाता कहीं आपकी खुद की परिपक्वता से तो नहीं है?

ऐसा नहीं है। मैं महज 22 या 23 साल की थी, जब मैंने सास-बहू के रिश्तों पर 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' बनाया। न मैंने शादी की है न ही मैं कभी संयुक्त परिवार में पली-बढ़ी हूं। मेरा मानना है कि रिश्तों की गुत्थी सुलझाने व समझने के लिए हमें सोशल डॉक्टर बनना चाहिए। जैसे हर मरीज को ठीक करने के लिए डॉक्टर को खुद मरीज बनने की जरूरत नहीं, वैसे ही रिश्तों की गहरी पड़ताल करने के लिए जरूरी नहीं कि हम रिश्ते बनाने के बाद ही चीजों को समझ पाएं!

(झंकार टीम)


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