देविका रानी से बात-मुलाकात
मुंबई। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस कदर दिलीप कुमार का शुरुआती जीवन स्थानांतरण के दौर से गुजरा। ेकॉलेज तक आते-आते उनका रुझान अंग्रेजी साहित्य की ओर बढ़ा। तब तक उनके जेहन में दूर-दूर तक अभिनेता बनने या फिल्म जगत से जुड़ने का ख्याल नहीं था। उनकी तत्कालीन महत्वाक

मुंबई। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस कदर दिलीप कुमार का शुरुआती जीवन स्थानांतरण के दौर से गुजरा। कॉलेज तक आते-आते उनका रुझान अंग्रेजी साहित्य की ओर बढ़ा। तब तक उनके जेहन में दूर-दूर तक अभिनेता बनने या फिल्म जगत से जुड़ने का ख्याल नहीं था। उनकी तत्कालीन महत्वाकांक्षा टेस्ट क्रिकेटर बन मैच में शतक लगाने का था। साथ ही वे अपने पिता सरवर खान को उनके फलों के व्यापार में हाथ बंटा रहे थे।
उन दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'मैं शुरू से बिजनेस-मांइडेड था। मुझे अपना खानदानी पेशा पसंद भी था। मेरे पिता बड़े गर्व से अनार और सेब की बड़े फल दिखाते हुए कहते थे कि मुझे भी आगे चलकर ऐसे ही बड़ा बनना है, क्योंकि वे मुझे सबसे तेज-तर्रार बेटा मानते थे। वे चाहते थे कि मैं खूब पढ़ाई करूं, ताकि अपने खानदानी पेशे को और बड़ा कर सकूं।'
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। फलों के काम से सरवर खान दिलीप कुमार को हिमालय की वादियों में भेजते। खासकर देहरादून और नैनीताल। काम के सिलसिले में वैसी ही एक यात्रा में वे नैनीताल गए थे। वहां उनका परिचय देविका रानी से करवाया गया। देविका वहां अमिय चक्रवर्ती के साथ अपनी अगली फिल्म के लिए लोकेशन ढूंढने आई थीं। उन्हें दिलीप कुमार बहुत अच्छे लगे। उन्होंने झट से दिलीप कुमार को मुंबई में उनसे मिलने के लिए कहा। वापसी में मगर दिलीप कुमार को वह ऑफर याद नहीं रहा। उन्होंने उसे गंभीरता से लिया भी नहीं।
पढ़ें:दिलीप साहब-महानायक की महागाथा
यहां बॉम्बे टॉकीज की तत्कालीन स्थिति का जिक्र करना प्रासंगिक है। उन दिनों उस स्टूडियो की कर्ता-धर्ता देविका रानी थीं। उनसे पहले उसकी स्थापना हिमांशु रॉय ने 1934 में की थी। वे उस बैनर के तले 'कंगन', 'बंधन' और 'झूला' जैसी हिट फिल्में बना चुके थे। तीनों में अशोक कुमार लीला चिटनिस प्रमुख कलाकार थे। हिमांशु राय की 1940 में मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी और अभिनेत्री देविका रानी ने उनकी मौत के बाद स्टूडियो की कमान संभाली। हिमांशु राय की मृत्यु के बाद स्टूडियो संभालना बड़ा मुश्किल था। वह स्टूडियो दो धड़े में बंट चुका था। एक को अमिय चक्रवर्ती और शशिधर मुखर्जी लीड कर रहे थे तो दूसरे को राय बहादुर चुन्नीलाल। देविका रानी ने दोनों धड़ों के बीच समन्वय स्थापित करने की जी-तोड़ कोशिश की, पर वह हो न सका। चुन्नीलाल आखिर में अलग हो गए और 1942 में उन्होंने फिल्मिस्तान स्टूडियो की स्थापना की।
अब बॉम्बे टॉकीज के सर्वप्रमुख सितारे अशोक कुमार थे। वे शशिधर मुखर्जी के साले थे। वे भी बॉम्बे टॉकीज छोड़ने की कगार पर थे, क्योंकि उन्हें फिल्मिस्तान की फिल्मों के ऑफर मिल रहे थे। वैसी सूरत में देविका रानी को बॉम्बे टॉकीज का बचाने में काफी दिक्कतें आ रही थीं। वे हर हाल में अपने पति द्वारा स्थापित स्टूडियो को फिर से नई बुलंदियों पर ले जाना चाहती थीं। लिहाजा वे अशोक कुमार का विकल्प ढूंढने में लग गई। उसके लिए उन्हें किसी दूसरे स्थापित सितारे के बजाय नए चेहरे को अपनी फिल्मों में कास्ट करना बढि़या विकल्प लगा। उसी की परिणति दिलीप कुमार थे। नैनीताल में पहली मुलाकात के दौरान उन्हें दिलीप कुमार में स्टार का अक्स महसूस हुआ।
लेकिन दिलीप कुमार अदाकारी को लेकर गंभीर नहीं थे। उस वक्त इसकी कई वजहें थीं। एक तो यह कि दिलीप कुमार के पिता को वह पेशा पसंद नहीं था। दूसरा दिलीप खुद कुछ और बनना चाहते थे। साथ ही उन्हें अपने खानदानी पेशे में कोई दिक्कत भी नजर नहीं आ रही थी। नैनीताल से मुंबई आने के बाद परिस्थितियां बदल गई। दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और उनके पिता के फलों के कारोबार पर संकट के बादल घिर आए। उनके सामने कोई दूसरी नौकरी ढूंढने की नौबत आ गई। फिर भी वे अदाकारी को लेकर गंभीर नहीं थे। अलबत्ता उनके छोटे भाई नासिर खान जरूर फिल्मों में करियर बनाना चाहते थे। वह तो भला हो डॉक्टर मसानी का, जिन्होंने दिलीप कुमार के नाम की सिफारिश देविका रानी से की।
मसानी एक जमाने में हिमांशु राय के फैमिली डॉक्टर हुआ करते थे। उन्होंने मलाड स्थित बॉम्बे टॉकीज के दफ्तर में दिलीप कुमार की मीटिंग फिक्स की, लेकिन तयशुदा वक्त पर दफ्तर में उनकी मुलाकात स्टूडियो के प्रोडक्शन कंट्रोलर एस. गुरुस्वामी से ही हो सकी। किसी कारणवश उस दिन स्टूडियो बंद था। दोनों फिर अगले दिन देविका रानी से मिलने आए। वह मुलाकात संक्षिप्त थी। देविका ने उनसे महज चार सवाल किए। उससे बस इतना पता चल सका कि दिलीप कुमार की उर्दू अच्छी है, पर अदाकारी की न तो उन्होंने तालीम ली है, न इसका कोई पूर्व अनुभव था। दिलीप कहते हैं, 'नैनीताल में देविका रानी मुझको लेकर काफी आशावान थीं, पर मुंबई में बातचीत के बाद उन्हें अपने फैसले पर शक हुआ। बाद में देविका रानी ने अमिय चक्रवर्ती और सहयोगी हितेन चौधरी से मशवरा किया। हितेन ने कहा कि हम सिर्फ किसी को देखकर उसकी अदाकारी की क्षमता का पता नहीं लगा सकते। उस शख्स को एक मौका दिया जाए, फिर उसे आंका जाए। आखिरकार दिलीप कुमार (तब युसूफ खान) को 500 रुपए प्रति महीने की पगार पर कंपनी में रखा गया। दिलीप कुमार ऐक्टर बनने की बात अपने पिता सरवर खान से छिपाना चाहते थे, इसलिए देविका रानी ने उनका नाम युसूफ खान से बदलकर दिलीप कुमार कर दिया। नाम बदलने की एक और वजह यह भी रही कि देविका रानी अशोक कुमार का विकल्प तैयार करना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने युसूफ खान का नाम दिलीप कुमार रखा।
(क्रमश:)
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।