उत्तराखंड इलेक्शन: कठपुतली बनी मतदाता जागरूकता का माध्यम
कठपुतली कला को उत्तराखंडी परिवेश में ढालने वाले रामलाल भट्ट ने अब इस कला को उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में मतदाता जागरूकता का माध्यम बनाया है।
देहरादून, [संतोष तिवारी]: राजस्थान से आकर हाशिये पर पहुंची कठपुतली कला को उत्तराखंडी परिवेश में ढालने वाले रामलाल भट्ट ने अब इस कला को मतदाता जागरूकता का माध्यम बनाया है। पिछले विधानसभा चुनाव में तो निर्वाचन आयोग ने बाकायदा उन्हें कुमाऊं मंडल में मतदाता को जागरूक करने की जिम्मेदारी भी सौंपी थी। जिसका उन्होंने पूरे मनोयोग से निर्वहन भी किया।
हालांकि, इस बार चुनाव में आयोग की ओर से ऐसा कोई न्योता नहीं मिला, लेकिन उन्हें अपनी जिम्मेदारी का भलीभांति अहसास है। कहते हैं, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। समसामयिक मुद्दों के साथ असमानता और रंगभेद को जड़ से उखाड़ फेंकना ही अब उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।
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प्रसिद्ध समाजसेवी एवं मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरुणा नायर को अपना रोल मॉडल बताने वाले रामलाल बताते हैं कि कठपुतली कला उन्हें विरासत में मिली। पिता थलमाराम राजस्थान में कठपुतली कला के बड़े नाम हुआ करते थे। हालांकि, 18 साल की उम्र में ऐसा भी दौर आया, जब उन्होंने कठपुतली कला से नाता तोड़ लिया।
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क्योंकि, इसमें न तो सम्मान था, न पैसा ही। ऐसे में उनके लिए पेट पालना भी मुश्किल हो गया था। यह 1978-79 का दौर था, जब टेलीविजन घर-घर में दखल देने लगा था। लिहाजा, वर्ष 1979 में दीपावली के दिन उन्होंने अपनी सारी कठपुतलियों को आग के हवाले कर दिया।
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मगर कला तो खून में रची-बसी थी, सो उससे ज्यादा दिन दूर कैसे रह सकते थे। इत्तिफाक से इसी बीच रामलाल का राजस्थान के अजेमर स्थित समाज कार्य एवं अनुसंधान केंद्र से संपर्क हुआ। यहां वे अरुणा नायर और उन जैसे तमाम दिग्गजों के संपर्क में आए और फिर हाथों में आ गई कठपुतली की डोर।
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इस बार उन्होंने संकल्प लिया कि इस कला को परंपराओं की बेड़ियों से मुक्त कराकर ही दम लेंगे। इसी प्रयास में वह 1980 में राजस्थान से देहरादून आ गए। यहां उन्होंने कठपुतली कला को राजा-रानी और विदूषक की परंपरागत छवि से बाहर निकालते हुए हिमालय, पहाड़, नदी और प्रकृति से जोड़ने का प्रयास किया। रामलाल बताते हैं कि तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और यह सफर निरंतर जारी है।
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विदेशों में दे चुके हैं प्रस्तुति
अजमेर (राजस्थान) के कोटड़ी गांव में वर्ष 1962 में जन्मे रामलाल भट्ट कठपुतली कला के क्षेत्र में जानी-मानी शख्सियत बन चुके हैं। वर्ष 1986 में उन्होंने नार्वे, इंग्लैंड और पाकिस्तान में एक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से कठपुतली कला का प्रदर्शन किया। वर्ष 2002 में उन्हें सरकारी खर्च पर कॉमनवेल्थ इंस्टीट्यूट इंग्लैंड जाने का मौका मिला। इस बार वह तकरीबन तीन महीने तक लंदन में रहे और वहां के सरकारी स्कूलों में रंगभेद के खिलाफ प्रभावशाली मुहिम चलाई।
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कला का संरक्षण एकमात्र उद्देश्य
रामलाल ने कठपुतली को न सिर्फ परंपराओं से बाहर निकाला, अपितु उसे जनसरोकारों से भी जोड़ा। दून की यातायात व्यवस्था को बड़ी चुनौती मानने वाले रामलाल कहते हैं कि यातायात जागरूकता को लेकर जहां भी कार्यक्रम होते हैं, वे वहां पहुंचकर लोगों को टै्रफिक नियमों का पाठ पढ़ाते हैं।
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पाठ्यक्रम में शामिल हों लोककलाएं
लोककलाओं के संरक्षण को लेकर सरकारी स्तर पर सीमित प्रयास से भी रामलाल चिंतित नजर आते हैं। वह कहते हैं कि लोककलाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। इससे कंप्यूटर के दौर में पहुंच चुकी पीढ़ी को हम अपनी जड़ों से जोड़ पाएंगे।
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