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    जातियों की राजनीति

    By Edited By:
    Updated: Tue, 14 Jul 2015 12:08 AM (IST)

    सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना 2011 की जिस उत्सुकता से प्रतीक्षा थी उसे जारी किए गए आंकड़ों ने पूरी

    सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना 2011 की जिस उत्सुकता से प्रतीक्षा थी उसे जारी किए गए आंकड़ों ने पूरी न की। देश को अपनी बदहाली के आंकड़ों में उतनी दिलचस्पी न थी जितनी सरकार को। लोग यह जानने को ज्यादा उत्सुक थे कि आज जनसंख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग और उच्च जातियों का क्या प्रतिशत है? यह सूचना 1931 की जनगणना में अंतिम बार दी गई थी, उसके बाद जनगणना आयोग ने केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की ही गणना की। प्रश्न यह है कि अन्य पिछड़े वर्ग और उच्च जातियों की जनगणना क्यों बंद की गई थी और आज उसे पुन: शुरू करवाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? जातिगत जनगणना बंद कराने के बहुत से कारण थे जो गृह मंत्रालय के दस्तावेजों में उपलब्ध हैं और नेहरू से लेकर राजीव गांधी, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी आदि के तर्कपूर्ण विचारों में व्यक्त हैं, लेकिन उसे पुन: शुरू कराने के पीछे कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की क्या मंशा थी? क्या सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू यादव और जदयू के शरद यादव का मनमोहन सरकार पर दबाव था? क्या जातियों के आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति को और दृढ़ किया जा सके? आज हम इतने जाति-परस्त क्यों हो गए हैं कि हमें केवल अपनी जाति और उसकी संख्या में ही दिलचस्पी है? भारतीय संविधान तो एक मिसाल है जो सबको वयस्क मताधिकार देकर यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक संख्या बल को राजनीतिक शक्ति का हथियार बनाया जा सकता है। यदि कोई सामाजिक वर्ग बहुसंख्यक है तो ध्यान इस पर होना चाहिए कि उस सामाजिक वर्ग को कैसे एकता के सूत्र में पिरोया जाए? कैसे उस संपूर्ण सामाजिक वर्ग को एक साथ ऊपर उठाया जाए? लेकिन जब उस सामाजिक वर्ग के अंदर ही स्वयं उपजातीय प्रश्न मुखर हों और आर्थिक असमानताएं गंभीर हों तो फिर उस सामाजिक वर्ग के हिमायती बनने का क्या औचित्य?

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    वास्तव में अगर संपूर्ण समाज को देखा जाए तो जातीय राजनीति के चलते हम वर्तमान के लिए भविष्य को कुर्बान कर रहे हैं। अगर भारत में जाति तीन हजार वर्ष पुरानी संस्था है और उसकी विसंगतियां भी उतनी ही पुरानी हैं तो उससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता, लेकिन उस व्यवस्था को तो हम स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान-निर्माण के साथ ही छोड़ने का संकल्प ले चुके हैं। फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन्मे जिन भारतीयों ने जातिगत शोषण में कोई सहभागिता न की, उनको भी उसका दंड क्यों भुगतना पड़ रहा है, उनका प्रतिलोम-शोषण पिछले 65 वषरें से अनवरत चल रहा है और अभी निकट भविष्य में उसकी कोई सीमा रेखा भी दिखाई नहीं देती। कोई भी राजनीतिक दल इस संवेदनशील प्रश्न में अपना हाथ नहीं डालना चाहता। अफसोस तो इस बात का है कि रोज 'क्रीमी-लेयर' की परिभाषा बदलकर पिछड़े वर्ग के अति-पिछड़ों को अनवरत वंचित रखने का खेल चल रहा है। लगता नहीं है कि अभी देश में कोई ऐसा दमदार नेतृत्व है जो जाति से ऊपर उठकर वर्ग की बात करे। क्यों हमारे लिए 'गरीब' महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए चाहे वह किसी भी जाति का हो? गरीबी न केवल रोजमर्रा की जिंदगी के लिए अभिशाप है, बल्कि वह मनुष्य में आत्मविश्वास खत्म कर देती है और जीवन के संघषरें से निपटने में कमजोर कर देती है। क्या हमें जाति की जगह आर्थिक-वर्ग को निशाना नहीं बनाना चाहिए?

    इसी संदर्भ में सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ये ठीक है कि अभी केवल गांवों के ही आंकड़े आए हैं, शहरों के नहीं, लेकिन कुछ बातें तो साफ हो ही जाती हैं। भारत की प्रमुख ग्रामीण आबादी अभी भी बदहाल है, अरबों-खरबों रुपयों से ग्रामीण-विकास का ढोल पीटने की पोल खुल गई है और किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के रहस्य उजागर हो गए हैं। ग्रामीण विकास से जुड़ी मशीनरी के मकड़जाल में फंसे ग्रामीण अब शहरों के स्वप्न देखते हैं। पुश्त-दर-पुश्त जमीनों के बंटवारे से काश्तकार छोटे होते जा रहे हैं और कृषि करना लाभकारी नहीं रहा। अमेरिका में कभी 80 से 90 प्रतिशत लोग खेती करते थे, आज 1-2 प्रतिशत बड़े काश्तकार बचे हैं। कहीं ऐसा न हो कि हम भी उसी राह पर चल पड़ें। अमेरिका तो औद्योगिक विकास, भारत के मुकाबले लगभग चौगुनी जमीन और कम जनसंख्या के भरोसे इसे झेल गया, लेकिन शायद हम इसे सह न पाएंगे। अगर सरकार और समाज का ध्यान केवल जाति पर ही रहेगा तो समग्र सामाजिक उन्नयन का क्या होगा? आज पूरी शक्ति इस बात पर लगाने की जरूरत है कि गरीबी को कैसे उखाड़ फेंका जाए और कमजोर से कमजोर व्यक्ति को भी कैसे समाज में एक अच्छी जिंदगी हासिल हो सके। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 'गरीबी-हटाओ' अभियान के परिणाम की वास्तविकता सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों से साफ हो जाती है, 45 वर्षो के बाद भी स्थिति जस-की-तस? कहां हटी गरीबी?

    आखिर क्यों नहीं हट पा रही है गरीबी? कहां कमी रह जा रही हैं? कहीं न कहीं हमारी लोकतांत्रिक राजनीति और प्रशासन 'सुशासन और लोक-कल्याण' के पैमाने पर सफल नहीं हो पा रहा है। लोगों को कितना सब्र करना पड़ेगा? कहीं ऐसा न हो कि जनता के सब्र का बांध टूट जाए और उसकी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताएं कमजोर पड़ जाएं? इस खतरे से निपटने के लिए समाज के उन लोगों को राजनीति में उतरना पड़ेगा जो अभी हाशिये पर बैठ कर यह उम्मीद करते हैं कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

    सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को जारी करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जो उत्साह दिखाया, आशा की जानी चाहिए कि वैसा ही उत्साह राज्य सरकारें भी दिखाएंगी और उनका प्रयोग कर 'प्रो-एक्टिव' नीतिगत पहल करेंगी। लेकिन उससे भी च्यादा जरूरी है कि जिन अभिकरणों और एजेंसियों के माध्यम से ग्रामीण विकास कराए जाते हैं उन पर एक नए ढंग से निगरानी की जाए जिससे जनता का पैसा ग्रामीण-विकास की जगह अधिकारियों और नेताओं की जेब में न जाए। जितना ही विकास का बजट बढ़ रहा है, उतना ही विकास अभिकरणों पर नेताओं और माफियाओं की पकड़ भी बढ़ रही है। यह एक जटिल समस्या है जिससे नेतृत्व को मजबूती से निपटना पड़ेगा अन्यथा ग्रामीण-विकास और गरीबी-उन्मूलन मृग-मरीचिका की तरह हमें छकाते रहेंगे। यद्यपि गरीबी दूर करने के लिए मोदी सरकार के वित्तीय-समावेशनका प्रयास सराहनीय है, लेकिन लोकतंत्र और संघीय-व्यवस्था ऐसे किसी प्रयास पर अच्छा खासा 'ब्रेक' लगाते हैं। विपक्षी दलों को हर बात का विरोध करने का संवैधानिक अधिकार है और राच्यों को केंद्र सरकार से अलग लाइन लेने की राजनीतिक-स्वायत्तता प्राप्त है। ऐसे में वित्तीय समावेशन को सार्थक बनाने के लिए केंद्र सरकार को राजनीतिक, प्रशासकीय और संघीय समावेशन का भी पुरजोर प्रयास करना चाहिए। किसी की भी जाति उसके लिए अभिशाप नहीं बननी चाहिए। सामाजिक-विखंडन से देश को बचाना एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी है, जिसे न केवल आंतरिक, बल्कि वाह्य-परिदृश्य के भी संदर्भ में देखने की जरूरत है।

    [लेखक डॉ. एके वर्मा, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं]