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    बिहार की चुनावी बयार

    By Edited By:
    Updated: Mon, 15 Jun 2015 02:19 AM (IST)

    बिहार विधानसभा के चुनाव होने में अभी कुछ महीने बाकी हैं, लेकिन वहां चुनावी बयार तेज हो चली है। इसकी

    बिहार विधानसभा के चुनाव होने में अभी कुछ महीने बाकी हैं, लेकिन वहां चुनावी बयार तेज हो चली है। इसकी शुरुआत दो वर्ष पूर्व जून 2013 में ही हो गई थी जब नरेंद्र मोदी को भाजपा ने 2014 लोकसभा चुनाव अभियान का अध्यक्ष बनाया। इसके एक सप्ताह बाद ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में 17 वषरें के जदयू-भाजपा संबंध और लगभग आठ वर्षो की गठबंधन सरकार को तोड़ दिया। लोग नीतीश कुमार की मानसिकता समझ नहीं पाए। क्या उनके लिए मोदी और भाजपा अलग-अलग थे? जो कारण नीतीश ने लोगों को बताए उन पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। जनता को उनके तर्क बेमानी लगे और उसका खामियाजा नीतीश को लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ा जिसमें उनकी पार्टी जदयू को केवल दो सीटें मिलीं। इसी हताशा में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के चलते नौ महीने के बाद पुन: सत्ता वापस ले ली। और अब अपनी उसी महत्वाकांक्षा के चलते अपने धुर-विरोधी और चारा घोटाले में झारखंड उच्च न्यायालय से सजायाफ्ता राजद के लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाकर बिहार की जनता को एक बार फिर असमंजस में डाल दिया।

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    बिहार की राजनीति हमेशा पेचीदा रही है और उसमें जाति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1989 में मंडल से निकली ऊर्जा के कारण बिहार में पिछड़ी-जातियों का जो उदय हुआ तब से राजनीतिक नेतृत्व उनके हाथों में चला गया। 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी और तब से नीतीश कुमार का शासन चल रहा है। दोनों ही पिछड़ी जाति से आते हैं। चूंकि इससे पिछड़ी जातियों के वोट बंट गए इसलिए लालू ने यादव-मुसलमान तो नीतीश ने उच्च जातियों, अन्य-पिछड़ी जातियों के कुर्मी-कोइरी और दलितों का एक सामाजिक गठबंधन बना लिया। पिछले 25 वषरें से इसी सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द बिहार की राजनीति घूम रही है। और अब अगर ये दोनों एक साथ आ रहे हैं तो औरों के लिए फिर बचा क्या? इसी दृष्टिकोण से भाजपा द्वारा 2014 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय एक कौतूहल का विषय बनी। क्या भाजपा विधानसभा चुनावों में भी वैसा या उससे मिलता-जुलता प्रदर्शन दोहरा पाएगी?

    इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें दो बातों पर गौर करना पड़ेगा। एक, क्या राजद-जदयू का राजनीतिक गठबंधन धरातल पर एक सामाजिक-गठबंधन में भी तब्दील होगा? दूसरा, क्या भाजपा-विरोध को आधार बनाकर राजद-जदयू की चुनावी रणनीति बिहार के मतदाताओं को प्रभावित कर सकेगी? राजद-जदयू का गठबंधन कृत्रिम और मजबूरी का गठबंधन है जिसे लालू यादव ने जहर का घूंट पीकर स्वीकार किया है, लेकिन क्या उनका वोट-बैंक भी वैसा ही घूंट पीने को तैयार है? एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले राजद और जदयू के कार्यकर्ता अचानक एक साथ आने में बहुत ही असहज महसूस करेंगे। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि पिछड़े वर्ग पर अब लालू-नीतीश का एकाधिकार नहीं रहा, अब उसमें नरेंद्र मोदी का भी नाम जुड़ गया है। वह भी पिछड़ी जाति से ही आते हैं। अब भाजपा न केवल अगड़ों की, वरन पिछड़ों की भी पार्टी बन गई है और इसका प्रमाण पिछले लोकसभा चुनावों में मिला जिसमें पिछड़ी जातियों का भरपूर समर्थन भाजपा को मिला। जाहिर है नीतीश और लालू, दोनों ही इस बात से वाकिफ होंगे और चिंतित भी। लेकिन इस दूसरे सवाल के बारे में कुछ कहना मुश्किल है कि क्या भाजपा विरोध की रणनीति मतदाताओं के गले उतरेगी? इसका कारण है कि पिछले एक वर्ष में मोदी ने जो भी किया उसका आकलन तो जनता पर छोड़ना पड़ेगा, लेकिन इतना जरूर है कि मोदी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे किसी भी जाति-धर्म के लोगों को उपेक्षित और असुरक्षित होने का भान हो।

    बिहार में नीतीश ने भाजपा गठबंधन के साथ एक नए युग की शुरुआत की थी, विकास और सुशासन की बात की थी और लोगों के मन में लालू-राबड़ी के समय के जंगलराज के भय को कम किया था। बिहार तेजी से विकास के रास्ते पर चल पड़ा था, लेकिन उसी जंगलराज के प्रतीक को पुन: साथ लेने से नीतीश पर जनता का विश्वास बना रहेगा या उठ जाएगा, कहना मुश्किल है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरे देश में उनसे विकास की जबरदस्त अपेक्षा है। यदि बिहार की जनता को लालू के आने से नीतीश की विकास और सुशासन की क्षमता पर संदेह हो गया तो पासा पलट सकता है। यह तो तय है कि राजद-जदयू की किसी संभावित सरकार में नीतीश को उतनी ही स्वतंत्रता होगी जितनी लालू देंगे। न जाने कब वह अपने जहर के घूंट का हिसाब मांग लें? और न जाने कब बिहार में जंगलराज खंड-दो का प्रारंभ हो जाए? ये कुछ संवेदनशील मुद्दे हैं जिसे बिहार की जनता को ही सुलझाना है। इस प्रश्न को सुलझाने में बिहार की जनता को यह तय करना है कि क्या अभी भी बिहार अस्मिता की राजनीति पर चलेगा? क्या जातियां इतनी महत्वपूर्ण हैं कि बिहार की वर्तमान और अगली पीढ़ी के लिए विकास और सुशासन की जरूरतों को दरकिनार कर हम केवल जातिवादी राजनीति के दलदल में फंसे रहें? स्वतंत्रता के बाद देश में जब सबसे अच्छे प्रशासित राच्य के मूल्यांकन के लिए अमेरिका के विद्वान पॉल अप्लेबी को नियुक्त किया गया था तो उन्होंने बिहार को सर्वोच्च स्थान दिया था। क्या बिहार अपनी उस गौरवशाली परंपरा में पुन: लौटेगा?

    बिहार में केवल भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए जनता परिवार का पास आना और उसमें कांग्रेस, राकांपा और कम्युनिस्टों को मिलाकर एक गठबंधन बनाने का प्रयास करना राजनीति के मूलभूत उद्देश्यों के अनुकूल नहीं। नकारात्मक उद्देश्यों पर सकारात्मक उद्देश्य हमेशा भारी पड़ते हैं। शासक, शासन और जनप्रतिनिधियों की खूब आलोचना होनी चाहिए पर निंदा नहीं। भाजपा के सामने भी एक समस्या है बिहार में आलोचना की, वह किसकी आलोचना करे? पिछले आठ वर्षो से तो वह स्वयं ही नीतीश सरकार के साथ थी। उसके बाद लगभग नौ महीने मांझी का शासन रहा-क्या वह उसकी आलोचना करे जिसे वह स्वयं अपने पाले में लाना चाहेगी? हां, यह जरूर है कि वह बिहार के विकास में अपने योगदान का स्मरण जनता को करा सकती है। और उसकी समस्या यह है कि राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते स्वयं उसकी व्यापक आलोचना हो सकती है मसलन कि मोदी शक्तियों का केंद्रीकरण कर रहे हैं, देश को अध्यक्षात्मक प्रणाली की ओर ले जा रहे हैं, संघ के एजेंडे को पूरा कर रहे हैं इत्यादि। लेकिन भाजपा को न केवल इनका जवाब देना पड़ेगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि इन जवाबों में बिहार के मतदाता की कितनी दिलचस्पी है। कैसे वह बिहार के मतदाता को आश्वस्त करे कि राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी वह बिहार को वहां की क्षेत्रीय पार्टियों से बेहतर प्रशासन देगी। इस परिप्रेक्ष्य में रामविलास पासवान की लोजपा, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मांझी की हिंदुस्तान अवाम मोर्चा से गठबंधन उसे बिहार की राजनीति में मजबूत आधार दे सकता है।

    [लेखक डॉ. एके वर्मा, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं]