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    परिवार मुक्त कांग्रेस

    By Edited By:
    Updated: Wed, 04 Feb 2015 05:27 AM (IST)

    अभी देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान कांग्रेस मुक्त भारत की जुगत को समझने में ही लगा था तब तक

    अभी देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान कांग्रेस मुक्त भारत की जुगत को समझने में ही लगा था तब तक स्वयं कांग्रेस ने एक अजीब मुहिम 'गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस' को जन्म दे दिया। 30 वषरें से कांग्रेस को समर्पित जयंती नटराजन का इस्तीफा इसका जीवंत प्रमाण है। एक लड़ाई कांग्रेस की अपने बाहर की ताकत से है तो दूसरी लड़ाई उसकी अपने अंदर की ही शक्तियों से है। चाहे वह जयंती नटराजन हों या कृष्णा तीरथ, जनार्दन द्विवेदी हों या शशि थरूर, वे उन शक्तियों की एक झलक हैं। ये वे लोग हैं जो कांग्रेस का पर्याय रहे हैं और जिन्होंने अपना पूरा जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया। तो क्या कांग्रेस अब इन सभी को मोदी-समर्थक की संज्ञा तो नहीं देगी? या पार्टी और कांग्रेसी उन संकेतों को पकड़ने का प्रयास करना चाहेंगे जो इन कांग्रेसियों की पीड़ा में व्यक्त हो रहे हैं?

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    कांग्रेस के सामने अब केवल दो ही विकल्प हैं। या तो कांग्रेस पहले की ही तरह ऐसे कांग्रेसियों के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया देकर पार्टी के विघटन और विध्वंस की प्रक्त्रिया को और गति दे या वह पार्टी के 130 वषरें के इतिहास को ध्यान में रखकर उसके अस्तित्व, भूमिका और उत्तारदायित्व को लेकर कुछ संजीदा निर्णय ले। कांग्रेस को इनमें से एक विकल्प चुनना होगा और बहुत जल्द। इसका कारण बिल्कुल साफ है। जिस तरह देश में कांग्रेस की नकारात्मक और नेतृत्वविहीन छवि उभरी है उसने कांग्रेस को दोहरी शिकस्त दी है। कांग्रेस से भारत सरकार और दिल्ली सरकार, दोनों ही छिन गई। इतना ही नहीं, एक नई आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से दिल्ली में उसका मतदाता भी छीन लिया और यह तभी संभव हुआ है जब कांग्रेस ने उसके लिए स्वयं स्थान खाली किया है। यदि कांग्रेस ने जल्द ही कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया तो इस बात की पूरी संभावना है कि यह प्रवृत्तिराष्ट्र-व्यापक हो जाए। तो क्या कांग्रेस स्वयं भी मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के संकल्प को सार्थक करने में लगी हुई है? और क्या अपने वरिष्ठ नेताओं को अपमानित करने और उनके द्वारा कांग्रेस छोड़े जाने की पार्टी नेतृत्व की ही कोई 'गुप्त-नीति' तो नहीं? अगर ऐसा नहीं तो कांग्रेस का वरिष्ठ नेतृत्व अपने पार्टी-नेतृत्व के लोकतंत्रीकरण का प्रयास क्यों नहीं करता? क्या वह सोनिया गांधी और राहुल गांधी से डरता है? क्या अब कांग्रेस में ऐसे लोग नहीं बचे जो पार्टी के हित में सबसे शक्तिशाली नेता या व्यक्ति का भी विरोध कर सकें?

    कांग्रेस के पास तो जवाहरलाल नेहरू की विरासत है, जिन्होंने देश और पार्टी के हित में 1929 में लाहौर-अधिवेशन में स्वयं अपने पिता मोतीलाल नेहरू द्वारा तैयार 'नेहरू-रिपोर्ट' का विरोध कर उसे अस्वीकार करवाया, जिसमें भारत के लिए 'पूर्ण-स्वराज्य' की जगह ब्रिटिश-साम्राज्य के अंतर्गत एक 'औपनिवेशिक राज्य' की मांग की गई थी। उसी लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया गया और 26 जनवरी को प्रतिवर्ष उस संकल्प को दोहराने का निर्णय लिया गया- वही दिन जिसे आज हम बड़े गर्व के साथ गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। देश को बचाने के लिए अगर नेहरू अपने पिता तक का विरोध कर सकते हैं तो कांग्रेस को बचाने के लिए कांग्रेसी सोनिया गांधी और राहुल का विरोध क्यों नहीं कर सकते? विरोध तो लोकतंत्र की आत्मा है, बिना आत्मा शरीर का क्या महत्व? लेकिन अगर वास्तव में कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगता है कि बिना गांधी परिवार के कांग्रेस जीवित नहीं रह सकती तब तो यह एक प्रकार से स्वीकारोक्ति है कि कांग्रेस का कोई जनाधार नहीं। यह तो उनके लिए दोहरी चिंता का विषय है। नेतृत्व कृत्रिम और जनाधार नदारद तो कैसे चलेगी पार्टी? लेकिन इसके साथ ही एक और समस्या कांग्रेस के सामने आ गई है। भारतीय संसदात्मक प्रणाली में चुनावी-स्पर्धा का स्वरूप अध्यक्षात्मक होता जा रहा है। अध्यक्षात्मक प्रणाली में चुनाव प्रमुख रूप से दो नेतृत्वों के बीच होता है। विगत लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व की कमियों को देश और स्वयं कांग्रेस ने अच्छे से देख लिया है। नेतृत्व व्यक्तित्वमूलक गुण है, उसे आप किसी पर आरोपित नहीं कर सकते, लेकिन कुछ लोग उन गुणों को जल्दी सीख लेते हैं। राहुल गांधी ने एक लंबी अवधि के बावजूद भी वे गुण नहीं सीखे, जबकि कई बार पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल के दौरान उनको कभी भी देश का नेतृत्व संभालने का आमंत्रण दे डाला था।

    राहुल गांधी को दिए ऐसे आमंत्रणों और संकेतों ने कांग्रेस और देश, दोनों से छल किया है। एक ओर इसने राहुल गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को हवा दी वहीं दूसरी ओर जनता में यह संदेश गया कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के अगले प्रधानमंत्री होंगे। इसकी वजह से कांग्रेस में कोई यह हिम्मत ही नहीं कर पाया कि पार्टी में एक कुशल, स्वीकार्य, प्रभावी और गंभीर कांग्रेसी को राष्ट्रीय नेतृत्व की जिम्मेदारी देने बात की जाए और उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शुरू किया जाए जिससे ऐसे योग्य नेतृत्व को तलाशा और तराशा जा सके। ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस पार्टी की इतनी लंबी विरासत हो, जिसका राष्ट्रीय स्वरूप रहा हो और जिसकी पैठ समाज के सभी वगरें में रही हो आज उस पार्टी में राहुल और सोनिया के अलावा नेतृत्व देने वाला पूरे देश में कोई न हो? कांग्रेस की इस कमजोरी से देश कांग्रेस जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय राजनीतिक दल को खो सकता है, उसकी राष्ट्रीय पहचान मिट सकती है और वह कुछ राज्यों में सिमट कर सीमित महत्व का एक राजनीतिक दल बन सकती है। यह देश के लोकतांत्रिक चरित्र के लिए बहुत ही घातक हो सकता है। कांग्रेस की समस्या केवल यह नहीं है कि उसका जनाधार सिमटता जा रहा है, बल्कि यह भी है कि आत्मचिंतन के लिए तैयार नहीं नजर नहीं आती। जो दल अपनी बुनियादी खामियों पर निगाह डालने और उन्हें दूर करने के लिए तैयार न हो वह फिर से अपनी पुरानी ताकत पाने की आशा नहीं कर सकता। लोकसभा चुनाव में हैरान कर देने वाली हार के बाद से कांग्रेस हर दिन अपनी राह से और अधिक भटकती नजर आ रही है।

    कांग्रेस पार्टी को न केवल प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प कांग्रेस मुक्त भारत से लड़ना चाहिए, बल्कि उसे अपनी अस्मिता की भी लड़ाई लड़नी चाहिए। लेकिन उस लड़ाई के लिए उसे पार्टी के दूरगामी हित में कठिन निर्णय लेने होंगे और अपने को इस भ्रम से मुक्त करना होगा कि कोई एक परिवार या व्यक्ति किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए अपरिहार्य है। उसे कांग्रेस मुक्त भारत की काट के लिए गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की अवधारणा को स्वीकार करना होगा। यह कांग्रेस पार्टी, देश और भारतीय लोकतंत्र सभी के लिए एक बेहतर विकल्प होगा।

    [लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीतिक विश्लेषक हैं]