राजनीति और कूटनीति का मेल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीति के बहस के
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीति के बहस के केंद्र में वही बने हुए हैं। चुनावों के पहले गुजरात दंगों की वजह से, चुनावों के दौरान तूफानी दौरों और जन-संवाद के कारण और चुनावों के बाद न केवल एक कर्मठ प्रधानमंत्री के रूप में, बल्कि एक ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में जो राजनीति और कूटनीति का अद्भुत मेल कर रहा है। पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है कि एक प्रधानमंत्री शासन के प्रत्येक अवसर को अपने लिए एक लाभकारी राजनीतिक अवसर में बदल रहा है। यही तो राजनीति है-काम करो, दिल जीतो, सत्ता भोगो। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का जनता से संवाद नहीं था। उनका मौन कांग्रेस को बहुत महंगा पड़ा। लोकतंत्र में जनता अपने नेता से सीधे बातचीत करना चाहती है। अपने दिल की बात कहना चाहती है, उसके दिल की बात सुनना चाहती है। मोदी इसमें एक्सपर्ट हैं। उनमें असीम ऊर्जा भी है। अपने छोटे से चार महीने के कार्यकाल में पड़ोसियों के अलावा वे जापान, चीन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे अनेक महत्वपूर्ण देशों से संबंध बनाने में जुटे हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों को संचालित करने के बिना किसी पूर्व अनुभव के और अभी तक एक भी 'फाउल' नहीं? खासतौर से अमेरिका दौरा हमारे सामने है। न जेट-लैग, न खाना-पीना, न विश्राम। केवल नीबू-पानी और काम ही काम। संयुक्त-राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण और राष्ट्रपति बराक ओबामा से हिंदी में वार्ता कर न केवल भाषा, बल्कि एक पूरी संस्कृति व सभ्यता की अस्मिता की पुनस्र्थापना की। रही बात कहां से क्या मिला? तो अंतरराष्ट्रीय संबंध शुद्ध लेन-देन पर चलते हैं। यदि आप आर्थिक उपनिवेशवाद के शिकार नहीं होना चाहते तो आप को लेने के साथ-साथ देने को भी सोचना पड़ेगा।
मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनको पहले ही दिन से अपने उस रिपोर्ट-कार्ड की चिंता है जो उनको 2019 के लोकसभा चुनावों में जनता को प्रस्तुत करना है। इसका मतलब साफ है, मोदी अपने पूरे कार्यकाल को अगले चुनाव की तैयारी के रूप में प्रयोग करेंगे। इसकी बानगी उन्होंने दो कार्यक्रमों से दे दी है। एक, आकाशवाणी के माध्यम से जनसंवाद और दूसरा, स्वच्छ भारत अभियान। राजनीतिक दृष्टिकोण से इसमें सभी देशवासियों से जुड़ने का, उनसे अपने दिल की बात कहने का और उन्हें अपने से जोड़े रखने का प्रयास है। वहीं समाज के सभी वगरें, विशेषत: दलित समाज को अपने से जोड़ने का प्रयास है। इससे आम आदमी पार्टी और मायावती की बसपा काफी चिंतित होगी। कारण यह है कि मोदी ने एक तीर से कई निशाने लगा डाले। जहां उनके सफाई अभियान से किसी का विरोध नहीं हो सकता वहीं उन्होंने 'आप' के चुनावी निशान 'झाड़ू' को ही अपने अभियान का हथियार बना डाला। आप के चुनावचिह्न का राजनीतिक अपहरण हो गया और आप कुछ न कर सकी। प्रधानमंत्री ने दलित-समाज के कार्य को गांधीजी के प्रति श्रद्धांजलि से जोड़ कर महिमामंडित कर दिया। संभव है कि दलितों का एक वर्ग भाजपा की ओर आकर्षित हो जाए। यह मायावती को एक चुनौती है। यह पश्चिम बंगाल के वामपंथियों को चुनौती है। यह द्रमुक और अन्नाद्रमुक को तमिलनाडु में चुनौती है। यह उन क्षेत्रीय दलों को चुनौती है जो महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार और ओडिशा आदि राच्यों में दलितों और वंचितों की राजनीति करते हैं। राजनीति का ऐसा मॉडल देश में पहली बार देखने को मिल रहा है।
अभी तक अन्य नेता, मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री क्यों न समझ सके कि लोकतंत्र में पार्टी के साथ-साथ नेतृत्व का भी बड़ा महत्व है। नेतृत्व ऐसा होना चाहिए जो लोगों में उत्साह, आशा और सक्रियता पैदा कर सके। मोदी ने यह माहौल पैदा किया है। अच्छी बात यह है कि वे कांग्रेस के कई कार्यक्रमों को ही आगे बढ़ा रहे हैं, और कांग्रेस तिलमिला रही है, लेकिन क्यों ऐसे कार्यक्रमों में लोग कांग्रेस से या कांग्रेस लोगों से न जुड़ सकी? कहीं कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का कोई निहित स्वार्थ तो उसे ऐसा करने से नहीं रोक रहा था? मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना करते हैं। कांग्रेस का रुख क्या होना चाहिए? क्या उसे 'कांग्रेसयुक्त' भारत की कल्पना नहीं करनी चाहिए? पार्टी का पुराना इतिहास है, लेकिन उसे यह समझ में नहीं आता कि देश में लोकतंत्र और पार्टी में सामंतवाद या परिवारवाद एक साथ नहीं चल सकते। कुछ वषरें पूर्व जिस भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर कोई वज़ूद नहीं था, आज उसकी मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार है। ये वही मोदी हैं जो बारह वषरें की आलोचना की दहकती 'टनल' से तप कर निकले हैं। कांग्रेस के पास तो जनसमर्थन की एक विरासत है। क्यों पार्टी एक नई और सकारात्मक शुरुआत नहीं कर सकती? इसका कारण यह है कि मोदी चाहें या न चाहें, भारतीय लोकतंत्र को एक सशक्त विपक्ष की जरूरत है और केवल कांग्रेस ही उस दायित्व के लिए उपयुक्त है। यह समय इसके लिए बहुत उपयुक्त है, क्योंकि अभी मोदी अगले दस वषरें तक संभवत: कांग्रेस को सरकार बनाने का कोई चांस न दें।
इसका कारण यह है कि एक ओर मोदी विकास और सुशासन से लोगों का दिल जीत रहे हैं वहीं दूसरी ओर वे समाज के पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों से भी संबंध बना रहे हैं। अन्य-पिछड़ा-वर्ग का होने के कारण एक ओर तो देश में लगभग आधी-आबादी से जुड़ने का सामाजिक कारण भी है मोदी के पास और दूसरे, दलितों से संबंध बनाकर, उनको रोजमर्रा के जीवन में महत्व और उन्नयन देकर वह उनको भी अपनी तरफ मोड़ सकते हैं। छोटा ही सही, पर मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग भी धीरे-धीरे मोदी की तरफ आकर्षित हो रहा है। मोदी की राजनीति और कूटनीति के समन्वित प्रभाव को निष्क्रिय करने का प्रभावी तरीका कांग्रेस और अन्य दलों को अभी नहीं सूझ रहा।
[लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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