आज ही काठगोदाम पहुंची थी पहली रेलगाड़ी, जानिए देश के सबसे खूबसूरत स्टेशन का इतिहास
कुमाऊं के प्रवेश द्वार और पहाड़ के आखिरी रेलवे स्टेशन काठगोदाम (Kathgodam)पर पहली बार आज ही के दिन कोई रेलगाड़ी पहुंची थी। तारीख थी 24 अप्रैल 1884 ।

हल्द्वानी, जेएनएन : कुमाऊं के प्रवेश द्वार और पहाड़ के आखिरी रेलवे स्टेशन काठगोदाम (Kathgodam)पर पहली बार आज ही के दिन कोई रेलगाड़ी पहुंची थी। तारीख थी 24 अप्रैल 1884 । नदी, जंगल को पार कर धूआं उगलते हुए जब पहली ट्रेन यहां पहुंची तो लोग इसे गोरे साहबों यानी अंग्रेजों की कोई नई साजिश समझे। यह वह दौर था, जब पूरा क्षेत्र जंगलों से घिरा हुआ था, बाघ, तेंदुओं और हाथी की दहशत हुआ करती थी। पहाड़, नदी और जंगल से हरा भरा नैनीताल की तलहटी में बसा यह इलाका प्राकृतिक सौंदर्य से पूरिपूर्ण हुआ करता था। पहाड़ को मौदान से जोड़ने वाला यह आखिरी स्टेशन तब से एक भी कदम और आगे पहाड़ न चढ़ सका है। बता दें कि भारतीय रेलवे पूर्वोत्तर मंडल (North Eastern Railway/NER) के अधीन इस स्टेशन से 10 ट्रेनों का संचालन हो रहा है, जिनमें सात डेली और तीन साप्ताहिक ट्रेनें हैं। हर वर्ष तकरीबन सात लाख लोग यहां से यात्रा करते हैं।
व्यापार करने के लिए अंग्रेजों ने बिछाई पटरी
सन 1800 में अंग्रजों का भारत में शासन जाेरों से चल रहा था। मुम्बई, कलकत्ता, हैदराबाद, आगरा और लखनऊ के लिए उन्होंने ट्रेन की व्यवस्था कर ली थी, मगर उत्तरी पूर्व के लिए ट्रेन की पटरी तक नहीं बिछी थी। ऐसे में उन्हें इधर व्यवसाय करने में परेशानी हो रही थी। सो व्यापार के लिए उन्होंने काफी कोशिशें कर काठगोदाम तक रेल पटरी बिछा ली, लेकिन यहां से आगे पहाड़ होने के कारण रेल लाइन आगे न बना सके। उन्होंने 1870 के दशक में ही पटरियों की नींव रख दी थी। और इस तरह से पहाड़ का आखिरी स्टेशन कोठगोदाम बना। और इस तरह पहली बार 24 अप्रैल 1884 में यहां पहली ट्रेन लखनऊ से आई ।
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चौहान पाटा नाम से जाना जाता था काठगोदाम
नैनीताल जिले के निचले हिस्से में गौला नदी के तट पर बसा है काठगोदाम। काठगोदाम को पहले चौहान पाटा के नाम से जाना जाता था। 1901 तक यह 300-350 की आबादी वाला एक गांव हुआ करता था। उस समय इंडिया के टिम्बर किंग नाम से पहचाने जाने वाले दान सिंह बिष्ट उर्फ दान सिंह ‘मालदार’ ने चौहान पाटा में लकड़ी के कई गोदाम बनाए। जिसके बाद से चौहानपाटा काठगोदाम के नाम से जाना जाने लगा। दान सिंह मालदार मूल रूप से पिथौरागढ़ के रहने वाले थे और हल्द्वानी-अल्मोड़ा मार्ग पर बीर भट्टी में भी उनका घर था।
परिवन सुविधा न होने से नदी में बहाकर लाते थे लकड़ियां
ब्रिटिश शासकों द्वारा कुमाऊं में कब्ज़ा कर लिए जाने के बाद यह जगह व्यापारिक महत्त्व की भी बन गयी। उस ज़माने में पहाड़ से इमारती लकड़ी लाने के लिए परिवहन के साधन नहीं हुआ करते थे। उन दिनों पहाड़ों के लकड़ी ठेकेदार इमारती लकड़ियों के लठ्ठे नदियों में बहाकर मैदानों तक लाया करते थे। कुमाऊँ के खासे भाग से लकड़ियां गौला नदी में बहाकर ले आयी जाती थीं। पहाड़ों से यहाँ बहाकर लाए गए लकड़ी के लट्ठों को गौला नदी से बाहर निकालकर गोदामों में रख दिया जाता था। यहाँ से व्यापारी लकड़ी खरीदकर अन्यत्र ले जाया करते थे।
चन्द शासकों का सामरिक महत्त्व का स्थान
चन्द शासन काल में काठगोदाम गांव को बाड़ाखोड़ी या बाड़ाखेड़ी के नाम से जाना जाता था। उस दौर में यह एक सामरिक महत्त्व की जगह हुआ करती थी। उन दिनों गुलाब घाटी से आगे जाने के लिए किसी तरह का रास्ता नहीं था। इस वजह से यहाँ से शुरू होने वाली पहाड़ी बाहरी आक्रमणकारियों को रोकने के लिए बेहतरीन ढाल का काम करती थी। रुहेलों और लुटेरों को आगे पहाड़ों की ओर बढ़ने से रोकने में इस जगह का अच्छा इस्तेमाल किया जाता था। कल्याणचन्द के शासनकाल में 1743-44 में रुहेलों के एक बड़े आक्रमण को इसी जगह पर विफल किया गया था। चन्द शासक कल्याणचन्द के सेनापति शिवदत्त जोशी के नेतृत्व में रुहेलों की फ़ौज को निर्णायक शिकस्त दी गयी। इसके बाद से रुहेलों ने दोबारा कुमाऊँ का रुख नहीं किया।

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