मई में भी बारिश और ओलों की किसानों पर पड़ी मार, फसल तबाह
प्रारंभिक आकलन के अनुसार पहाड़ों में खेती और बागवानी को 40 फीसद तक का नुकसान हुआ है। किसानों की मेहनत पर पानी फिर रहा है।
देहरादून, देवेंद्र सती। 'का वर्षा जब कृषि सुखानी।' इन दिनों किसानों के हाल कुछ ऐसे ही हैं। बरसात के मौसम में भी उनकी निगाहें आसमान पर टकटकी लगाए रहती हैं और अब भी यही हाल है। न जाने कब आसमान से ओले बरसने लगें। फसल पकी हुई है और ऊपरवाला है कि रहम के लिए तैयार नहीं। मई में भी बारिश और ओलों की मार ने आंसू निकाल दिए हैं। पिछले दिनों हुई बारिश के दौरान तो कई जगह खेतों में मलबा घुसने से फसल तबाह हो गई। प्रारंभिक आकलन के अनुसार पहाड़ों में खेती और बागवानी को 40 फीसद तक का नुकसान हुआ है। किसानों की मेहनत पर पानी फिर रहा है और महकमे हैं कि अभी नुकसान का आकलन भी ठीक से नहीं कर पाए, ऐसे में प्रभावित किसान को राहत कब मिलेगी। कुदरत पर तो किसी का वश नहीं है, लेकिन घावों पर मरहम तो लगाया जा सकता है।
छलक उठे पैमाने
'राज रंक में भेद कभी हुआ नहीं मदिरालय में'। प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां पिछले दिनों खूब चरितार्थ हुईं। शराब की दुकानें क्या खुलीं, सब्र के पैमाने छलक उठे। अमीर हों या गरीब मयखाने के बाहर कतार में खड़े थे। पहाड़ से मैदान तक बेसब्री का जाम था। कई जगह लोगों ने कतारों में संयम का परिचय दिया तो कुछ जगह शारीरिक दूरी के 'पैमाने' भी टूट गए। आलम यह रहा कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। खैर, जिन्होंने सब्र किया उनके लिए फल मीठा था और बेसब्रों को पुलिस की लाठी के साथ मायूस रहकर हाथ मलना पड़ा। पुलिस कह रही है कि मयखानों की लाइन में ऐसे लोग भी कम नहीं थे, जो राशन की कतार में अक्सर दिख जाते हैं। ऐसे लोगों को चिह्नित किया जा रहा है। पुलिस अपना काम करे कौन रोक रहा है, लेकिन इस सुरूर का गुरूर ही अलग है।
खुद की राह
कोरोना काल में पहाड़ के खाली गांव अब गुलजार हैं। बड़ी संख्या में दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में रहने वाले लोग अपने गांव लौट चुके हैं। इन सबको परिवार के साथ होने का सुकून तो है, लेकिन चिंता है भविष्य की। इनमें से कई शहर वापस नहीं लौटना चाहते, मगर यह नहीं समझ पा रहे कि करें क्या। ऐसे लोगों को राह दिखा रहे हैं चमोली जिले के चाका गांव के दस युवा। इनमें से कोई हरिद्वार के होटल में काम रहा था तो कोई दिल्ली में मजदूरी। कोरोना के भय से गांव लौटे और सब्जियां उगानी शुरू कर दीं। पहाड़ में बंजर हो चुके खेतों को उपजाऊ बनाने वाले इन माझियों की फसल अब तैयार होने वाली है। वे कहते हैं कि सरकार का मुंह भी कब तक ताकि, अगर हम मेहनत कर सकते हैं तो खुद का मुस्तकबिल तो हमारे हाथ में है। वास्तव में यह खास हैं।
...और अंत में
वक्त की नजाकत ही कुछ ऐसी है कि अपने भी परायों जैसे बन रहे हैं। पिछले दिनों देहरादून से पौड़ी जिले के दुगड्डा जा रही बस को ग्रामीणों ने आधी रात में बंधक बना लिया। बस में सवार तीस यात्री वे लोग थे जो लॉकडाउन के बीच देहरादून में फंसे थे। गांव के पास पहुंचे तो आसपास के गांव के लोग सड़क पर आ गए और उन्हें वापस भेजने की मांग करने लगे।
उन्हें डर था कि ये लोग इलाके में आए तो वे भी बीमार हो सकते हैं। आखिर पुलिस को बुलाया गया, तब जाकर मामला शांत हुआ। दरअसल, सिस्टम भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है, वजह यह कि बाहरी राज्यों अथवा जिलों से आ रहे लोगों को स्क्रीनिंग कर सीधे गांव भेजा जा रहा है। उन्हें क्वारंटाइन करने की व्यवस्था नहीं की गई। भई अगर सिस्टम अपना दायित्व निभा ले तो दिलों में दरार तो नहीं पड़ेगी।