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ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी...

जागरण फिल्म फेस्टि‍वल महज मनोरंजन का उत्सव नहीं है कि दो-ढाई घंटे थियेटर में गुजारकर दैनंदिन के झंझावतों से मुक्ति पा लें। सच कहें तो यह जेएफएफ की सोच भी नहीं है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 30 Jul 2018 11:05 AM (IST)Updated: Mon, 30 Jul 2018 11:05 AM (IST)
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी...
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी...

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: यह संक्रमण का ऐसा दौर है, जब हम अपने मनोभावों में संतुलन नहीं साध पा रहे। जीडीपी के आंकड़ों से हमारे चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश की जा रही है, पर हकीकत रह-रहकर आंखों के पोर गीले कर देती है। जीवन में ऐसी 'कड़वी हवा' घुल चुकी है कि विचार-संस्कार भी सुकून नहीं देते। पैसों के बल पर सुकून की तलाश में मुल्क से बाहर भी चले जाएं तो यादों की किरचें फिर वापस लौटने को मजबूर कर देती हैं। रिश्तों की इस आभासी दुनिया में कभी-कभी तो लगता है, मानो हम 

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मृगतृष्णा के पीछे भागे चले जा रहे हैं। दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर पर। पर, इसका हासिल क्या है, सिर्फ और सिर्फ वितृष्णा। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो हमने दुनियाभर का बोझ अपने सिर पर उठा लिया है, जिसका दबाव एक दिन हमें जमीन में गडऩे को मजबूर कर देगा। ऐसे ही अनगिनत सवाल हैं, जिन्हें कॉरपेट पर बिछे कांटों की तरह हमारे बीच छोड़ गया 'जागरण फिल्म फेस्टिवल'। इसीलिए जब फेस्टिवल की विदाई के साथ हम थियेटर से बाहर निकलते हैं तो होंठ खुद-ब-खुद बुदबुदाने लगते हैं, 'ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो 'कागज की कश्ती', वो बारिश का पानी।' 

 जागरण फिल्म फेस्टि‍वल (जेएफएफ) महज मनोरंजन का उत्सव नहीं है कि दो-ढाई घंटे थियेटर में गुजारकर दैनंदिन के झंझावतों से मुक्ति पा लें। सच कहें तो यह जेएफएफ की सोच भी नहीं है। यह तो एक आंदोलन है, सिनेमा के जरिये समाज की मनोदशा को पढ़ने का। ढलती पीढ़ी और संभलती पीढ़ी के बीच की खाई को पाटने के लिए माहौल तैयार करने का। देश-दुनिया की सामाजिक विसंगतियों को समझने का और इस सबसे इतर एक वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ने का। असल में अपनी सीमित समझ के अनुसार अक्सर हम समाजों के बारे में गैरवाजिब परिभाषाएं गढ़ लेते हैं। साथ ही यह सोच भी हमारे मनो-मस्तिष्क में घर कर लेती है कि जो-कुछ घट रहा है, उसमें बदलाव लाना किसी के बूते में नहीं। सड़-गल चुकी व्यवस्थाओं के मकडज़ाल में घिरे हम दो-पल सुकून के निकाल लें, यही गनीमत है। देखा जाए तो जेएफएफ हमारी इस धारणा को तोडऩे का काम कर रहा है।

आप सवाल कर सकते हैं कि जेएफएफ के तहत तीन दिनों तक दिखाई गई फिल्मों में ऐसा क्या था, जो बदलाव की ओर इशारा करता है। उल्टा इन फिल्मों ने तो अंतर्मन में ऐसे द्वंद्व को जन्म दे डाला, जो हमें सवाल खड़े करने को मजबूर कर रहा है। मितरों! यकीन जानिए, सिनेमा की संस्कृति को आगे बढ़ाने के पीछे यही हमारा हेतु भी है। जेएफएफ का सिनेमा दर्शकों की भीड़ एकत्र करने में विश्वास नहीं करता। उसका विश्वास तो ऐसे दर्शक हैं, जो चिंतन के साथ थियेटर से बाहर निकलते हैं। उनके लिए जितनी अहमियत महानगरों के संडे की है, उतनी ही कच्छ के रण में 'जल' की भी। उनके मन को जितना सुकून 'कुछ भीगे अल्फाज' दे जाते हैं, उतना ही एक भ्रष्टाचारी के घर पर पड़ी 'रेड' भी। उस बुर्जुग की पीड़ा भी उन्हें अपनी-सी महसूस होती है, जो पत्नी के गुजरने के बाद बच्चों के साथ ईरान से तुर्की में बसने के लिए आ तो गया, लेकिन माटी में बसी यादें उसे चैन नहीं लेने दे रही। वह इजरायली सैनिकों पर किए गए 'एंथ्रेक्स' के उस घातक चिकित्सकीय प्रयोग से भी खुश नहीं हैं, जिसने उनके जीवन को ही खतरे में डाल दिया।

ऐसा नहीं कि उन्हें पश्चिमी मुल्कों, खासकर अमरीका के साधन-संपन्न शहरों का जीवन नहीं सुहाता। लेकिन, अपने अंदर की भारतीयता को भी तो वह कुचल नहीं सकते। वह जानते हैं कि भारतीयता में जो लय है, रिश्तों के जो खूबसूरत बंधन हैं, वह दुनिया की किसी संस्कृति में नहीं। उनकी आंखें कर्ज में डूबे तिल-तिल मरते किसान को भी नहीं देख सकतीं। उनके लिए किसान को घुटते देखना 'कड़वी हवा' में सांस लेना जैसा है।

हालांकि, एक लिव-इन कपल समाज में उनकी सोच के दायरे को पूरी तरह नहीं तोड़ पाता, लेकिन वह दकियानूसी के दायरे में भी नहीं बंधना चाहते। उनकी स्पष्ट सोच है कि वक्त परिस्थितियों को अपने अनुरूप ढाल लेता है। उन्हें तो इस सबके बीच दो पल सुकून के चाहिए। ताकि एक नई सुबह के सपने देख सकें और गुनगुना सकें- 'वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी, वो ख्वाबों-खिलौनों की जागीर अपनी, न दुनिया का गम था, न रिश्तों का बंधन, बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी, वो 'कागज की कश्ती', वो बारिश का पानी।'

रिबन ने दिखाई बाल यौन शोषण की हकीकत

सामाजिक परिवेश पर बाल यौन शोषण की समस्या बेहद गंभीर है। मासूम बचपन को कुचलने वाले इस समाज में किसी भी चेहरे में मौजूद हो सकते हैं। मसलन रिश्तेदार, पड़ोसी, शिक्षक, ड्राइवर वगैरह-वगैरह। भारतीय समाज में अक्सर इन बातों को चाहरदीवारी के अंदर ही रखा जाता है। मगर, बदलते दौर में लोग इसके खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं। एक ऐसी ही कहानी 'जागरण फिल्म फेस्टिवल' में दिखाई फिल्म 'रिबन' की। जो इस वैश्विक समस्या पर गहरी चोट करती है।

महानगरों में रहने वाले वर्किंग कपल की लाइफ अक्सर ऑफिस के टेंशन से शुरू होती है और अनजाने में ही सही निजी जिंदगी में भी प्रवेश कर जाती है। निर्देशक राखी सांडिल्य ने मिडिल क्लास कपल के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी में बच्चों के यौन उत्पीड़न के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। करण मेहरा और शाहना एक निजी कंपनी में काम करते हैं। उनकी करीब चार साल की बच्ची को चॉकलेट का लालच देकर उसका यौन शोषण किया जा रहा है। 

वहीं, अपनी जॉब में व्यस्त माता-पिता को जब इसका पता चलता है तो वह अवाक रह जाते हैं। फिल्म की कहानी इसी ताने-बाने के बीच घूमती है। फिल्म के माध्यम से समाज में बढ़ रहे बाल अपराध के प्रति जागरूक करने की कोशिश की गई है। फिल्म में कल्कि कोचलिन और समित व्यास ने अपने अभिनय से प्रभावित किया है। कुल मिलाकर दर्शकों को यह फिल्म एक सामाजिक संदेश देने के साथ ही बच्चों के साथ हो रही इस तरह की घटनाओं के लिए भी जागरूक करती है।

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