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बॉलीवुड का ये एक्टर पायलट के इंटरव्यू में हुआ था रिजेक्ट

बॉलीवुड एक्टर मुकुल देव पालयट के इंटरव्यू में रिजेक्ट हो चुके हैं। जिसके बाद उन्होंने एक्टिंग में अपना फ्यूचर बनाने का फैसला लिया।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sun, 29 Jul 2018 02:38 PM (IST)Updated: Sun, 29 Jul 2018 02:38 PM (IST)
बॉलीवुड का ये एक्टर पायलट के इंटरव्यू में हुआ था रिजेक्ट
बॉलीवुड का ये एक्टर पायलट के इंटरव्यू में हुआ था रिजेक्ट

देहरादून, [गौरव ममगाईं]: बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि बॉलीवुड अभिनेता मुकुल देव एक्टर बनने से पहले पायलट की नौकरी करते थे। मुकुल देव की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। बात 1996 की है, जब मुकुल मुंबई में एयर इंडिया में पायलट के लिए इंटरव्यू देने गए। मगर, सिफारिश नहीं होने के चलते उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। फिर उनकी मुलाकात बॉलीवुड निर्देशक महेश भट्ट से हुई। उन्होंने मुकुल देव को एक्टिंग में हाथ आजमाने की सलाह दी। बस! यहीं से उनमें एक्टिंग का जुनून जागा और उन्होंने एक्टिंग को ही जिंदगी बनाने का फैसला कर लिया। 

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'जागरण फिल्म फेस्टिवल' के दूसरे दिन टॉक सेशन के दौरान अभिनेता मुकुल देव ने अपनी जिंदगी से जुड़े कई खास लम्हे साझा किए। मुकुल ने बताया कि 1996 में आई 'दस्तक' उनके फिल्मी कॅरियर की पहली और यादगार फिल्म थी। यह मौका उन्हें निर्देशक महेश भïट्ट की बदौलत मिला। वह ऐसा वक्त था, जब उनके माता-पिता भी एक्टिंग लाइन चुनने से नाराज और गुस्सा थे। मुकुल ने बताया कि वह एक ऐसे कलाकार हैं, जिसने ङ्क्षहदी, तेलगू, मलयालम, बंगाली व पंजाबी सिनेमा के अलावा छोटे पर्दे पर भी काम किया है। यह खास अनुभव है। 

पंजाबी फिल्मों से खास लगाव 

मुकुल देव ने कहा कि उन्हें पंजाबी फिल्मों में खास आनंद आता है। क्योंकि वह स्वयं भी पंजाबी हैं। अपनी मिट्टी में काम करने का मजा ही कुछ और है। मुकुल ने कहा कि बंगाली फिल्मों में भी आर्ट एवं टेक्लोनॉजी का खास तरीके से इस्तेमाल होता है। यह भी दिलचस्प रहता है। 

शॉर्ट मूवी एक्टिंग सीखने के लिए बेहतर 

दर्शकों के सवाल पर मुकुल ने कहा कि आज किसी को ज्यादा टिप्स देने की जरूरत नहीं है। टेक्नोलॉजी के युग में आज हर युवा शॉर्ट फिल्म बना सकता है। इसमें अपनी एक्टिंग को दुनिया के सामने प्रदर्शित कर सकता है और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकता है। 

दोस्तों का साथ हो तो हर दिन 'संडे' 

देहरादून, [दीपिका नेगी]: यहा एक संडे ही अपना है। हफ्ते के बाकी छह दिन तो हर कोई अपनी हसरतों, अपनी आजादी और अपनी चाहतों का खुद अपने ही हाथों गला घोंट रहा होता है। एक संडे ही तो है, जो दोस्तों के साथ सुबह फुटबॉल खेलने तो शाम को बियर की बोतल गटकने और बाकी दिनों में दुनिया के बीच जाने की हिम्मत देता है। 

मुंबई की लोकल ट्रेनों में अगर आपको रेगुलर आने-जाने का अनुभव हो अथवा उस पीड़ा को महसूस कर सकते हों तो 'तू है मेरा संडे के किरदारों से जान-पहचान बनाना बेहद आसान हो जाता है। यह फिल्म ऐसे ही पाच दोस्तों की जिंदगियों में बारी-बारी से झाकती है। फिल्म अपने पहले ही दृश्य में आपको अपने होने के काफी कुछ मायने समझा देती है। कूड़ा-कबाड़ में अपने लिए कुछ मतलब की वस्तु तलाशते एक बूढ़े भिखारी पर एक आवारा कुत्ता भौंक रहा है। वहीं, फुटओवर ब्रिज पर खड़े पांचों दोस्त इसे अपनी-अपनी जिंदगियों से जोड़कर देखने लगते हैं और फिर खुद पर हंसते हैं। 

कोई अपने खडू़स-घटिया बॉस से तंग है तो कोई घर-परिवार के झंझावतों से। सबके लिए एक संडे और फुटबॉल का मेल ही है, जो उन्हें अपने होने का और दो पल सुकून के गुजारने का अहसास कराता है। एक मनोरंजक और ईमानदार प्रयास के तौर पर यह फिल्म आपको महानगरों की भागती-दौड़ती भीड़ में रिश्तों की घटती गर्माहट जैसे छू जाने वाले मुद्दों पर बहुत खूबसूरती और मासूमियत से पेश आती है। कुल मिलाकर 'तू है मेरा संडे' मनोरंजक, इमोशनल और आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी बेहतरीन फिल्म है। यही कारण रहा कि हर उम्र के दर्शकों ने इसे पसंद किया। 

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