एनआरएचएम दवा घोटाला, सरकार की अनुमति पर तय होगी सीबीआइ की कार्रवाई
नेशनल रूरल हेल्थ मिशन दवा घोटाले की जांच काफी हद तक सरकार की अनुमति पर भी निर्भर करेगी। वहीं नौ साल मामले की जांच सीबीआइ के लिए बड़ी चुनौती होगी।
देहरादून, जेएनएन। एनआरएचएम (नेशनल रूरल हेल्थ मिशन) दवा घोटाले की जांच काफी हद तक सरकार की अनुमति पर भी निर्भर करेगी। इसके अलावा नौ साल बाद साक्ष्यों को जुटाने से लेकर अफसरों के गठजोड़ को तोड़ना भी सीबीआइ की लिए बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। हालांकि, राज्य सूचना आयोग से जारी आदेश और आइटीआइ से मिली जानकारी इस जांच में महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकती है। इसी पर सीबीआइ की टीम काम भी कर रही है।
राज्य को केंद्र पोषित एनआरएचएम योजना के तहत 2006 से 2010 के बीच मुफ्त दवा के नाम पर करोड़ों रुपये का बजट मिला। इस बजट से सरकारी अस्पतालों के लिए भारी मात्रा में दवा खरीद हुई। मगर, यह दवा जरूरतमंद तक पहुंचने के बजाय गोदामों में पड़ी रही। इसके पीछे मंशा सिर्फ बजट को ठिकाने लगने की थी। रुड़की में 2010 में लाखों की दवा जब नाले में मिली तो इसकी पुष्टि भी हो गई। बाद में राज्य सूचना आयोग से लेकर दूसरे माध्यम से जांच की मांग उठी। मगर, घोटालेबाजों के गठजोड़ ने हर बार जांच को फाइलों से बाहर नहीं आने दिया। यही कारण है कि नौ साल बाद सीबीआइ को तब जांच मिली, जब केंद्र से लेकर राज्य में जीरो टॉलरेंस की सरकार चल रही है।
हालांकि जांच की अनुमति मिलने के बाद सीबीआइ को अभी भी अंदेशा है कि भ्रष्टाचारी शासन से मांगी गई अनुमति पर भी पूर्व की भांति टालमटोल वाली नीति अपना सकते हैं। इससे सरकार की मंशा पर भी सीबीआइ की नजर रहेगी। यदि सीबीआइ के अनुमति पत्र पर जल्द सरकार ने मुहर लगा दी तो जांच और एक्शन भी उसी तर्ज पर हो सकता है। लेकिन चर्चाएं यह भी हैं कि नौ वर्ष तक जिस जांच को अफसरों ने साठगांठ कर दबाए रखा, उस पर सीबीआइ कितनी खरी उतर पाएगी, यह जांच के दौरान देखा जाएगा।
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जांच में पूर्व डीजी की अहम भूमिका
दवा घोटाले के दौरान स्वास्थ्य महानिदेशक रहने वाले अधिकारी सीबीआइ के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। खासकर राज्य सूचना आयुक्त के समक्ष तत्कालीन डीजी स्वास्थ्य ने जिस तरह से जांच करने में असमर्थता दिखाई थी, उससे आयोग भी वाकिफ था। इसके बाद आयोग ने पूरी पत्रावलियां शासन में अपर मुख्य सचिव स्वास्थ्य को व्यक्तिगत रूप से देखने के आदेश भी दिए थे।
डीजी ने ये कहा था
सूचना आयोग के समक्ष पेश हुए तत्कालीन डीजी ने स्पष्ट कहा था कि उनके अधीन मुख्य चिकित्साधिकारी (सीएमओ) जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं। इस कारण से वह जांच कराने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहे हैं।
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