Move to Jagran APP

शबरी के हृदय में भगवान की लीलाओं का होता है साक्षात्कार

भगवान श्रीराम ने शबरी के कंदमूल फल खाकर उसके रस को सुरस बना दिया था। यही है महारस। पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष तक शांति देने की क्षमता रखने वाला ईश्वर जब अवतार लेता है तब वह मानवोचित सुख और दुख दोनों को स्वीकार करता है। सुख में हर्षित न होना तथा दुख में विचलित न होना उसका स्वभाव है ।

By Kaushik SharmaEdited By: Kaushik SharmaPublished: Mon, 19 Feb 2024 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 19 Feb 2024 04:27 PM (IST)
श्रीरामकिंकर विचार मिशन के संस्थापक अध्यक्ष स्वामी मैथिलीशरण के विचार

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भगवान श्रीराम के द्वारा शबरी के समक्ष दिया गया नवधा भक्ति का उपदेश वस्तुत: शबरी जी की स्तुति है, जो स्वयं श्रीराम ने की। इस नए स्तंभ में नवधा भक्ति के ज्ञानमय और भक्तिमय स्वरूप का तात्विक विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।

loksabha election banner

भगवान श्रीराम ने शबरी के कंदमूल फल खाकर उसके रस को सुरस बना दिया था। यही है महारस। पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष तक शांति देने की क्षमता रखने वाला ईश्वर जब अवतार लेता है, तब वह मानवोचित सुख और दुख दोनों को स्वीकार करता है। सुख में हर्षित न होना तथा दुख में विचलित न होना उसका स्वभाव है, पर वह दिखाई ऐसा ही देता है, जैसे वह दुखी और पराश्रित है। भगवान श्रीराम द्वारा संसार को अपने चरित्र के द्वारा शिक्षा देने के लिए सीता जी का हरण और उनकी पुनर्प्राप्ति का उद्यम भी ईश्वर की लीला का भाग है। ईश्वर के निगूढ़ रहस्य को न समझकर संसारी जन विमूढ़ता को प्राप्त हो जाते हैं, पर ईश्वर की दिव्य लीला देखकर ज्ञानीजन सहज विरक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। शंकर जी ने पार्वती जी से कहा :

उमा राम गुन गूढ़ पंडित, मुनि पावहिं बिरति।

पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि विमुख न धर्म रति।।

ऋत सत्य ही परम सत्य है

दिखाई देने वाले स्थूल सत्य में न दिखाई देने वाला ऋत सत्य ही परम सत्य होता है। उसमें स्थिति या उसका दर्शन ज्ञान और भक्ति में स्थित हुए बिना संभव नही है। ग्रंथों का अध्ययन इसमें उपादान रूप माध्यम हो सकता है, पर उसमें लिखित ज्ञान को प्राप्त करना भी उसी परम सत्य की कृपा पर ही आश्रित है। सत्य को न समझ पाना तो अज्ञान है, पर उसको न समझने की इच्छा को मोह-विमूढ़ता कहा गया है। मोह विमूढ़ता का विलोम शब्द है अनपायनी भक्ति, जो केवल कृपासाध्य है, जो शबरी जी में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भी है।

यह भी पढ़ें: जीवन दर्शन: योग के द्वारा मन को कैसे काबू में करें?

ईश्वर को ऐश्वर्य से आवृत देखकर ईश्वर मानना तो बुद्धि संगत है, पर जब ईश्वर स्वयं अभावग्रस्त होकर सांसारिक दृष्टि से निस्साधन व्यक्ति से सहयोग की याचना कर रहा हो, तब भी उसको ईश्वर मानना भक्त की ऋतंभरा प्रज्ञा की स्थिति है। इस स्थिति में सत्य का साक्षात्कार स्वयं सिद्ध होता है। श्रीरामचरितमानस में शबरी वह पात्र हैं, जिनके हृदय में भगवान की लीलाओं का साक्षात्कार होता है। सीता जी शांति हैं। वह भक्ति और शक्ति हैं। सीता जी लक्ष्मी हैं। सीता जी ही उद्भव रूप में ब्रह्मा हैं, स्थिति में विष्णु और लय में सदाशिव हैं।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।

सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥

जीव की होती हैं ये तीनों स्थितियां

जीव की ये तीनों स्थितियां होती हैं। प्रात: उठते ही उद्भव, दिन में स्थिति और रात्रि में संहार। इसी बीच कदाचित हमारे जीवन में भी सीता जी खो जाती हैं। उनका हरण रावण के रूप में मोहग्रस्त स्थिति में हो जाता है। या तो लक्ष्मी चली जाती हैं, या शांति या फिर भक्ति या शक्ति। संसार की यह मान्यता है कि हम उस समय उनको पुन: प्राप्त करने के लिए किसी सामर्थ्यवान को खोजते हैं। हम मानते हैं कि प्राप्ति का संबंध तो सामर्थ्य से ही है। कृपा पुरुषार्थ पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। व्यक्ति सापेक्ष शक्तिशाली मिथ्या मान्यता हमें पथ विमूढ़ कर देती है। पर ध्यान रहे, भक्ति का संबंध जाति, पंक्ति, कुल, धर्म, प्रशंसा, धनी, निर्धन, शक्ति, स्वजन, परिजन, गुणी आदि से बिलकुल भी नहीं है।

श्रीराम की धर्म विमूढ़ता के कारण नहीं हुआ था सीता जी का हरण

यदि इसी धर्म विमूढ़ता के शिकार श्रीराम भी हो जाते तो वे सीता जी की खोज के लिए पहले सुग्रीव के बड़े भाई बालि (जिसने राम से पहले रावण को छह महीने तक बगल में दबाकर संसार को बता दिया था कि वह रावण का विजेता है) का सहयोग लेते। लेकिन यदि श्रीराम बालि का सहयोग लेते तो उनका यह समीकरण रामराज्य की धारणा के प्रतिकूल हो जाता। सीता जी का हरण श्रीराम की धर्म विमूढ़ता के कारण नहीं हुआ था, अपितु श्रीराम संसार की धर्म विमूढ़ता को समाप्त कर ज्ञान दीपक जलाना चाहते थे। वह भक्तिरूपा स्वयंप्रभा शबरी और लंका में त्रिजटा का दर्शन कराकर यह बताना चाहते थे कि सीता जी का हरण उस समय संसार के सबसे बड़े सामर्थ्यवान के द्वारा ही हुआ। किंतु उनकी प्राप्ति का मार्ग उन भक्तों के द्वारा प्राप्त हुआ, जो सांसारिक दृष्टि से बिल्कुल असहाय और पराश्रित हैं। भक्ति की यही विशेषता है, जिसमें निस्साधनता ही भक्ति का सबसे बड़ा साधन है। भक्ति पलायनवाद नहीं है।

भक्ति ईश्वर के सामर्थ्य, स्वभाव और प्रभाव के अवतरण और दर्शन का सर्वश्रेष्ठ साधन है। भगवान भक्त को खोजते हैं और भक्त भगवान को खोजता है। यही जीव और ईश्वर की एकरूपता है। श्रीरामचरितमानस में जो सप्त सोपान हैं, उन्हें ज्ञान की अंतर्दृष्टि से ही देखा जा सकता है और भक्ति से उसके गूढ़ तत्व को समझा जा सकता है। भगवान श्रीराम और श्रीलक्ष्मण श्रीसीता जी की खोज में उन शबरी के पास पहुंच जाते हैं, जो एक-एक पल केवल अपने प्रभु की राह देख रही हैं। कृपा और ईश्वर स्वयं चलकर आते हैं। यदि हमारे हृदय में ईश्वर निर्विकल्प है तो अपने भक्त को प्राप्त होने का साधन वह स्वयं बनाता है। यदि ईश्वर और कृपा का विकल्प संसार और सांसारिक साधन हैं तो न तो ईश्वर को हमारी आवश्यकता है और न ही हमें ईश्वर की।

भगवान श्रीराम के द्वारा शबरी के समक्ष दिया गया नवधा भक्ति का उपदेश वस्तुत: शबरी जी की स्तुति है, जो स्तुति स्वयं श्रीराम ने की। शबरी को उन राम में ईश्वरत्व दिखाई दिया, जो स्वयं अपनी भार्या को खोज रहे थे। विलाप कर रहे थे। जड़ पदार्थों से पता पूछ रहे थे। माया मृग के पीछे दौड़े थे, किंतु भक्ति प्राप्ति के लिए शर्त यह है कि हमें संसार में सबके गुणों का उपयोग करना होगा और सबमें गुण दर्शन करना होगा। दोष दर्शन रावण-संप्रदाय है और गुण दर्शन राम का अभिप्राय है। राम उन सारे पात्रों और पदार्थों का उपयोग करते हैं, जिनको रावण ने त्याग दिया था या उनको अनुपयोगी माना था। सृष्टि में कोई व्यक्ति और पदार्थ सर्वथा अनुपयोगी है, यह मान्यता मिथ्या और अज्ञान है। यह मोहग्रस्त और धर्मविमूढ़ लोगों की मान्यता है। किस गुण और व्यक्ति का उपयोग कहां और कितना करना है? दृष्टि की यही व्यापकता रामराज्य बना देती है।

भक्ति में गुणाभिमान का कोई स्थान ही नहीं है

भगवान गुणाभिमानी बालि का वध कर देते हैं और सुग्रीव में गुण दर्शन करते हैं। भक्ति में गुणाभिमान का कोई स्थान ही नहीं है, वहां तो गुणों का समर्पण होता है। गुण दर्शन भगवान में और दोष दर्शन स्वयं में, बस इसी विनय पत्रिका को भगवान को सुनाना है। इसी को भगवान की स्तुति कहा जाता है। हमारी यह भावना हमें भी स्तुत्य बना देती है। भगवान अपने भक्त के दोषों का हरण कर भक्त का वरण कर लेते हैं।

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।

हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी।

नाथ तू, अनाथ को अनाथ कौन मोसो,

मो समान आरत नाहिं आरत हरि तोसो ।

यही भाव है शबरी जी का, जब वे अपने अंदर कोई गुण ही नहीं देखती हैं। वे कहती हैं कि मैं आपकी स्तुति कैसे करूं, मेरे पास किसी प्रकार का ज्ञान नहीं है। जो उनके पास था बस वही अर्पित कर दिया। रस ही सुरस था। सुरस का तात्पर्य है कि रस फल की मिठास तो पहले से थी, पर भगवान ने प्रेम से खाकर जो उसका वर्णन किया, तो रस सुरस बन गया। यही है भक्ति का परिपाक जिसमें “सु” उपसर्ग लगकर अर्पित करने वाले की भावना को स्वीकार कर और उसकी प्रशंसा कर रस मे सुरसत्व आ जाता है।

यह भी पढ़ें: जीवन दर्शन: मौन से इंसान की बढ़ती है आंतरिक शक्ति


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.