चिंतन धरोहर: यहां जानिए वे तीन संस्थाएं जिनसे जीवन होता है सुखमय
अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी न किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। तो आइए इस लेख से कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं -

नई दिल्ली, आचार्य विनोबा भावे। अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे, तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी न किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है, जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। नदी स्वच्छंदता से बहती है, परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न हो तो उसकी मुक्तता व्यर्थ चली जाएगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी आंखों के सामने लाओ। सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है।
भगवान ने पहले पहल कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य से मनु को अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को वह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है। वह नियमित है। इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है। यह हमारे अनुभव की बात है कि यदि हमें एक निश्चित रास्ते से घूमने जाने की आदत हो तो रास्ते की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम घूम सकते हैं।
जीवन एक बोझ नहीं
यदि घूमने के लिए हम रोज नए-नए रास्ते निकालते रहेंगे तो सारा ध्यान उन रास्तों में ही लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक बोझ सा नहीं, बल्कि आनंदमय प्रतीत हो। इसलिए भगवान गीता के सत्रहवें अध्याय में कार्यक्रम बता रहे हैं। हम तीन संस्थाएं साथ लेकर ही जन्म लेते हैं। मनुष्य इन तीनों संस्थाओं का कार्य भलीभांति चलाकर अपना संसार सुखमय बना सके, इसीलिए गीता यह कार्यक्रम बताती है। वे तीन संस्थाएं कौन सी हैं? पहली संस्था है हमसे लिपटा हुआ यह शरीर।
दूसरी संस्था है हमारे आपपास फैला हुआ यह विशाल ब्रह्मांड, यह अपार सृष्टि, जिसके हम एक अंश हैं। जिसमें हमारा जन्म हुआ वह समाज, हमारे जन्म की प्रतीक्षा करने वाले वे माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी पड़ोसी, यह हुई तीसरी संस्था। हम रोज इन तीन संस्थाओं का उपयोग करते हैं। गीता चाहती है कि हमारे द्वारा इन संस्थाओं में जो छीजन आती है, उसकी पूर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करें और अपना जीवन सफल बनाएं।
यह भी पढ़ें: चिंतन धरोहर: सृष्टि को मानो चैतन्य, जानिए किन कर्मों से दूर रहती हैं चिंताएं?
जन्मजात कर्तव्य
इन संस्थाओं के प्रति हमारा यह जन्मजात कर्तव्य हमें निरहंकार भावना से करना चाहिए। इन कर्तव्यों को पूरा तो करना है, परंतु उसकी पूर्ति की योजना क्या हो? यज्ञ, दान और तप इन तीनों के योग से ही वह योजना बनती है। यद्यपि इन शब्दों से हम परिचित हैं तो भी इनका अर्थ हम अच्छी तरह नहीं समझते।
अगर हम इनका अर्थ समझलें और इन्हें अपने जीवन में समाविष्ट करें तो ये तीनों संस्थाएं सफल हो जाएंगी तथा हमारा जीवन भी मुक्त और प्रसन्न रहेगा।
यह भी पढ़ें: ज्ञान शारीरिक और बौद्धिक अहंकार से करता है मुक्त
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।