Mahakumbh 2025: महाकुंभ को ये चीजें बनाती हैं बेहद खास, जानिए इससे जुड़ी महत्वपूर्ण बातें
सनातन संस्कृति का महान आयोजन है महाकुंभ। मन-मंथन से निसृत अमृत-कुंभ की बूंदों को जीवन में अंगीकार करने का अवसर। भारत की कालजयी मृत्युंजयी संस्कृति की दिव्य अभिव्यक्ति। इसमें गिरि कंदरा मठ मंदिर और आश्रमों में रहने वाले लाखों तपस्वियों संन्यासियों और संतों का दर्शन व सान्निध्य त्रिविध तापों का शमन करने वाला और इहलौकिक एवं पारलौकिक प्रयोजनों की सिद्धि करने वाला होता है।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि (जूनापीठाधीश्वर, आचार्यमहामंडलेश्वर)। परमात्मा ने इस पवित्र धरा का सृजन लोकोपकारी मूल्यों के प्रसार हेतु किया है। हमारी जीवन पद्धति, पर्व, परंपरा और प्रार्थनाओं में व्यक्तिगत अभ्युदय के साथ-साथ समष्टि के सामूहिक कल्याण एवं लोकमंगल के स्वर समाहित होते हैं। परमात्मा ने गुण, कर्म और विभाग के अनुसार इस सृष्टि का सृजन किया और अपनी प्रकृति के अनुरूप सबका अपना अलग वैशिष्ट्य भी है। जैसे अग्नि की दाहकता और जल की शीतलता भिन्न-भिन्न कार्य हैं और दोनों की प्रकृति भी अलग है। सर्प, बिच्छू आदि विषधर जीव भी पारिस्थितिक संतुलन और आहार शृंखला की दृष्टि से उपयोगी होते हैं। जैसी दृष्टि होगी, तदानुकूल परिवेश की निर्मिति होती जाएगी। हमें अन्यों में केवल दुर्गुण और दोष ही न दिखें, अपितु दूसरों की श्रेष्ठता, सद्गुण और महानता की अनुभूति भी होनी चाहिए।
परमार्थ प्रकृति का मूल स्वर है। धरती, अंबर, जल, पवन, प्रकाश आदि के रूप में परमात्मा स्वयं भी पारमार्थिक कार्यों में संलग्न है। भगवान नारायण लोक कल्याण की संसिद्धि के लिए मदरांचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण कर समुद्र मंथन में कूर्म का रूप धारण कर देवगणों के सहायक हुए, जिसकी मूल भावना सृजन की ही थी। समुद्र मंथन अर्थात मनोमन्थन! अर्थात हम जब भी मंथन करते है तो निश्चित रूप से कोई संकल्प लेते हैं। यदि संकल्प शुभ व पारमार्थिक हो तो नियंता, नियति, परमात्मा, प्रकृति व सकल दैव सत्ता अभीप्सित लक्ष्य की संप्राप्ति में सहायक बनने लगते हैं।
वेदों में कहा गया है कि 'तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु' अर्थात जो मनोजयी है, वही अमृतत्व का अधिकारी है। निरभिमानिता ईश अनुग्रह और समस्त लौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं का मूल है। समुद्र मंथन के समय निकला अमृत श्रम की ही निष्पत्ति थी। देव और दानव संग्राम में अमृत घट से छलकी बूंदों से महिमामंडित चार स्थानों यथा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक में कुंभ राग गूंजता है। इस पर्व के दौरान कालगणना के अनुरूप पवित्र सलिलाओं का जल अमृत तुल्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त वैचारिक मंथन से सत्संग रूपी अमृत भी प्राप्त होता है।
आत्मपरिष्करण और जीवन निर्माण की आधारशिला है सत्संग। सत्संग की महिमा अद्भुत व अकथनीय है। विवेक जागरण, दिव्यता के प्रस्फुटन, भगवत्प्राप्ति आदि श्रेष्ठ पुरुषार्थों के मूल में सत्संग ही है। जीवन सिद्धि रूपी पुष्प का अंकुरण सत्संग, स्वाध्याय और सद्विचारों के बीजारोपण से ही सहज संभव है। शास्त्रों में उल्लेख है कि संत व सत्पुरुषों के सान्निध्य में श्रद्धा एवं विश्वास की मथानी और सत्संग, स्वाध्याय से उपार्जित विचार-अमृत ही अनंतता, अपराजेयता, अमृतत्व व जीवन सिद्धि का मूल है।
मनुष्य में अंतर्निहित श्रेष्ठता का प्रकटीकरण ही सत्संग की फलश्रुति है। जिस प्रकार क्षीर का मंथन करने से उसमें दही, मक्खन, घृत आदि औषधीय गुणों से युक्त पदार्थ प्रकट होते हैं, उसी प्रकार सत्संग, स्वाध्याय और सत्पुरुषों के सान्निध्य में जीवन की संपूर्णता प्रकट होती है। भारत की कालजयी, मृत्युंजयी संस्कृति की दिव्य अभिव्यक्ति कुंभ पर्व में गिरि, कंदरा, मठ, मंदिर और आश्रमों में रहने वाले लाखों तपःपूत संन्यासियों और संतों का दर्शन व सान्निध्य त्रिविध तापों का शमन करने वाला और इहलौकिक एवं पारलौकिक प्रयोजनों की सिद्धि करने वाला होता है। यह कुंभ पर्व का अनुपम वैशिष्ट्य है।
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इस नश्वर जगत में ज्ञान, विवेक और विचार सत्ता ही चिरस्थायी है। सृष्टि के स्वाभाविक क्रम में जन्म, विकास, हृास और अंत सभी अनंत में विसर्जित होते रहते हैं। सनातन धर्म का वैशिष्ट्य व अप्रतिम सौंदर्य आह्वान और विसर्जन की प्रक्रिया में सहज दृष्टिगोचर है। विसर्जन ही श्रेष्ठ सृजन की भूमिका तैयार करता है। हमारी संस्कृति में विसर्जन का अर्थ है, पुनः सृजन। हमारे देश में विसर्जन के बाद भी पत्र, पुष्प इत्यादि को आदरपूर्वक सहेज कर रखने की परंपरा है।
आध्यात्मिक मूल्यों के प्रस्फुटन, निर्बाध ज्ञान परंपरा के विकास, जल संरक्षण और समष्टि के कल्याण को समर्पित कुंभ पर्व इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं, जहां उत्सवकाल में अनेक धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक आयोजनों की शृंखला के लिए जनमानस का आह्वान कर स्वस्थ व सकारात्मक विचारों का सृजन किया जाता है। तदुपरांत विश्व को प्रेम, शांति, सद्भाव और समरसता के अनेक सूत्र देकर कुंभ पर्व का विसर्जन कर दिया जाता है।
भारत उत्सव प्रिय देश है, जो सदैव उत्सवों में रत नजर आता है। यहां जन्म से मृत्यु तक हर गतिविधि, उत्सव का विषय है। इसकी उत्सव प्रियता केवल उल्लास और आनंद से ही नहीं उपजती, अपितु इसमें आत्म संघर्ष का गौरव, अपराध बोध का तर्पण और पीड़ा का निरसन भी लक्ष्य होता है। इन्हीं उत्सवों के भीतर भारतीय समाज के विकास की यांत्रिकी भी छिपी हुई है। यदि किसी को सृजन और विसर्जन की कला सीखनी है तो संन्यासियों की जीवनशैली का दर्शन करना चाहिए।
प्रकाश रश्मियों के साथ सूर्य का उदय, आरोहण और नित्य प्रति अस्त होना इस बात का परिचायक है कि उद्भव, उत्कर्ष और पराभव प्रकृति का शाश्वत नियम है। वस्तुतः रात्रि के घने अंधकार में ही सूर्योदय के संकेत छिपे होते हैं। उसी प्रकार असफलता कुछ और नहीं, अपितु सफलता प्राप्ति की संसूचना ही है। जीवन का प्रत्येक सूर्योदय हमें हमारे लक्ष्य और संकल्पनाओं की संपूर्ति के नवीन अवसर प्रदान करता है, इसलिए सदैव नव सृजन, नवोन्मेषी विचार एवं अवसरों का स्वागत करना चाहिए। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि भारत की सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक एकता और दिव्यता की अनुपम अभिव्यक्ति कुंभ पर्व सृजन से विसर्जन की यात्रा है।
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