Jeevan Darshan: मानसिक तनाव से निजात पाने के लिए अपनाएं ये आसान टिप्स
प्रतिदिन हमारे मन में कई प्रकार के संकल्प-विकल्प चलते हैं। उनमें से कुछ सकारात्मक-नकारात्मक आवश्यक-अनावश्यक सोच चलते रहते हैं। जब मन में नकारात्मक और अनुपयोगी विचार अधिक चलते हैं तब हम अपने मन के अंदर चंचलता अस्थिरता चिंता तनाव व भय का अनुभव करते हैं। आत्मीय प्रेम और दया की ज्योति को सदा जगाकर रखेंगे।

ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। अकसर कहा जाता है कि मन चंचल है। कहीं ज्यादा देर टिकता नहीं। हमारी बात नहीं मानता। भटकता बहुत है, शांत व स्थिर कम रहता है। हमारे ध्यान में रहना चाहिए कि मन एक बच्चे के समान है, जो हमारा ही बच्चा है। उसे मनाना, समझाना व सुधारना है, न कि मारना, डांटना, डराना वा दबाना है। मन को समझाने से पहले हमें उसे ठीक तरह से समझना है।
जब हम कहते हैं कि मन हमारा है, तो हम कौन हुए? मन के मालिक, संचालक व रचयिता हुए। मूल रूप में हम एक चेतन शक्ति, दिव्य ज्योति बिंदु स्वरूप आत्मा हैं। आत्मा भृकुटि के बीच व मस्तिष्क के मध्य भाग में स्थित रहता है। मन, बुद्धि, संस्कार और स्थूल कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म कराता है। असल में, हमारे अंतरात्मा की सोचने की शक्ति को मन, परखने व निर्णय लेने की शक्ति को बुद्धि और कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म कराने की शक्ति को संस्कार कहा जाता है।
प्रतिदिन हमारे मन में कई प्रकार के संकल्प-विकल्प चलते हैं। उनमें से कुछ सकारात्मक-नकारात्मक, आवश्यक-अनावश्यक सोच चलते रहते हैं। जब मन में नकारात्मक और अनुपयोगी विचार अधिक चलते हैं, तब हम अपने मन के अंदर चंचलता, अस्थिरता, चिंता, तनाव व भय का अनुभव करते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान हमें सिखाता है कि मन के तनाव को दूर करने के लिए हमें ईश्वर से मन का संबंध साधना है और अपने संकल्पों को ठीक करने का ध्यान रखना है।
आत्मिक ज्ञान के साथ परमात्म ध्यान के नियमित अभ्यास द्वारा ही हम अपनी अंदर शुद्ध, स्वच्छ, स्वस्थ, पवित्र, समर्थ, सुखदाई व उमंग-उत्साह वाले विचारों को विकसित कर सकते हैं। उनके नियमित मनन-चिंतन द्वारा हमारी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाया जा सकता है, जिससे हमारा पुराना, अशुद्ध, दुखदायी एवं परेशान करने वाला नकारात्मक सोच मन के भीतर स्वत: अस्तित्वहीन हो जाए।
दूसरी बात, जैसे किसी भी व्रत-त्योहार के दिन लोग एक दिन के लिए मन, वचन, कर्म से पवित्र रहने अथवा शुद्ध खानपान लेने का व्रत रखते हैं, वैसे ही हमें अपने मन के सूक्ष्म भोजन, जैसे व्यर्थ संकल्प, नकारात्मक संकल्प अथवा अपवित्र संकल्प को त्यागने का व्रत लेना है। पवित्र रहने को व्रत मानना शुद्धता व शुभता की श्रेष्ठ वृत्ति अपनाना है। जैसी वृत्ति होती है, वैसी ही हमारी दृष्टि, कृति स्वत: ही बन जाती है। अत: हमेशा पवित्र शुभवृत्ति व पवित्र दृष्टि हमें रखनी चाहिए। तभी हमारे मन शांत, बुद्धि स्थिर व संस्कार सुखदायी बनेंगे, कर्मेंद्रियों की चंचलता समाप्त हो जाएगी तथा हमारा जीवन व संसार सुखमय बन जाएगा।
तीसरी बात, जब हम कर्म व्यवहार में हों, दूसरों का चेहरा देखते हुए भी भृकुटि के बीच चमकती हुई आत्मा को देखना है। क्योंकि आंखों के साथ-साथ भृकुटि भी है, तो भृकुटि के बीच आत्मा को देख बात करना है। मुख तो देखना है, लेकिन भृकुटि में चमकते हुए ज्योति बिंदु स्वरूप अंतरात्मा को देखना है। इस आत्मदृष्टि व वृत्ति का व्रत लेना है, इस पर अधिक अटेंशन देना है।
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आत्मा को देख बात करना है, जैसे आत्मा से आत्मा बात कर रहा है। आत्मा देख रहा है। यह रोज महसूस करना है और इसका अभ्यास करना है, तो वृत्ति सदा ही शुभ रहेगी और जैसी वृत्ति वैसा वायुमंडल बनेगा। वायुमंडल श्रेष्ठ बनाने से स्वयं के पुरुषार्थ में प्रगति के साथ-साथ दूसरों की सेवा भी होती है तो इसमें दोहरा लाभ है। ऐसी श्रेष्ठ वृत्ति बनाओ कि कैसा भी विकारी, पतित व्यक्ति आपकी वृत्ति के वायुमंडल से परिवर्तित हो जाए। उसका कल्याण हो जाए। ऐसा व्रत सदा स्मृति व स्वरूप में रखना है। यही सच्ची सेवा है।
अपने मन और जीवन को सुखमय बनाना है तो पवित्रता और प्रभु प्रेम का पक्का व्रत लेना है। क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार आदि बड़े-बड़े विकारों का व्रत तो हम लेते हैं, पर उनके छोटे-छोटे बाल-बच्चे जैसे कि ईर्ष्या, द्वेष, लगाव, झुकाव, आलस्य, अलबेलापन आदि से भी मुक्त होना है। कोई भी विकार चाहे छोटे रूप में हो चाहे बड़े रूप में, उसके आने का कारण एक शब्द है - दैहिक “मैं'' व "मेरा"।
इस एक मैं शब्द से अभिमान भी आता है और अभिमान अगर पूरा नहीं होता तो क्रोध भी आता है, क्योंकि अभिमान की निशानी है कि अभिमानी व्यक्ति एक शब्द भी अपना अपमान सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसे क्रोध आ जाता है। तो जो भी हद का मैं-न हो, उसे हमें ईश्वर को मन से समर्पित करना है। सर्व समर्थ भगवान के स्नेह संपूर्ण स्मृति से समर्थ बनकर इन अवगुणों को सदा के लिए समाप्त करना है।
अत: दुर्गुणों, दुर्गति और दुखों से मुक्त होने का साधन है- आत्मदृष्टि, वृत्ति, आत्मीय बोल, व्यवहार तथा परमात्मा से हृदय का प्यार। प्रभु प्रेम में लीन रहने का महायंत्र है- मनमनाभव का मंत्र अर्थात मन को ईश्वर में लगाओ। इस आंतरिक यंत्र को काम में लगाना है। परमात्म प्रेम में रहकर जो भी और जितना भी हमें जीवन में मिला है, प्रसन्नता मिली है, इन सब प्रभु देन को, खजानों को समय पर सेवा कार्य में लगाना है, सफल करना है और सफलता को पाना है। इससे हमें सब तरफ से आशीर्वाद मिलते रहेंगे। हम आशीषों में पलते रहेंगे तथा आगे बढ़ते रहेंगे।
आत्मीय प्रेम और दया की ज्योति को सदा जगाकर रखेंगे। इससे हम स्वयं पर, साथियों पर और सर्व के ऊपर भी दया दृष्टि रख पाएंगे, क्योंकि सबसे सहज और श्रेष्ठ दान, पुण्य व धर्म का काम है - आशीष। यानी शुभ भावना देना और दुआएं पाना। इस दुआएं देने और लेने में आत्मिक ज्ञान, परमात्म योग, गुणों की धारणा और निस्वार्थ सेवा सब आ जाता है। इसको ही पवित्रता की शक्ति कहा जाता है, जिस शक्ति से ईश्वर इस पतित कलयुगी सृष्टि में परिवर्तन करते हैं।
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पवित्रता और परमात्म योग की शक्ति से ही मनोविकारों की अग्नि में जलती हुई आत्माओं को भगवान शीतल बना देते हैं, उन्हें जन्मों के विकर्मों के बंधन से छुड़ा देते हैं तथा मन के संकल्प, बोल, कर्म व ज्ञान की शक्तियों को भी व्यर्थ जाने से बचा लेते हैं। अत: इस आत्मा-परमात्मा ज्ञान व राजयोग की साधना से उत्पन्न प्रभु प्रेम में रहकर हम स्वयं के तथा अन्य के तन, मन व जीवन को खुशहाल बना सकते हैं।
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