Jeevan Darshan: परिवर्तन को स्वीकार करना है जरूरी, रखें इन बातों का ध्यान
परिवर्तन ही जीवन का सत्य है। समय के साथ होने वाले परिवर्तनों को जब तक हम स्वीकार नहीं करेंगे, हम उनके अनुरूप चलकर अपने जीवन तथा दूसरों के जीवन को कल्याणकारी नहीं बना पाएंगे।

ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। परिवर्तन सृष्टि का नियम है। जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। उस बाहरी बदलाव पर हमारी कोई नियंत्रण नहीं है। उस परिवर्तन को पूरा या थोड़ा स्वीकार करना अथवा बिल्कुल अस्वीकार करना हमारे सोच, समझ, विचार, संस्कार व दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि वह यथास्थिति को ही पसंद करता है। जब भी उसमें कुछ बदलाव होता है तो वह उसका विरोध करता है। जब वह कोई परिवर्तन स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता है तो परिवेश व संबंधों में संघर्ष, तनाव, कटुता व टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।
व्यक्ति, प्रकृति व परिस्थिति के साथ तालमेल रखकर चलने में ही सबकी भलाई है। चाहे हम बदलाव को जीवन में अपनाएं या न अपनाएं, वह बाद की बात है, पर कम से कम हमारे सामने आई हुई परिवर्तन की प्रक्रिया, प्रवाह व उसके प्रभाव को परखना तो आवश्यक है ही। इसके लिए हमें उसे पहले स्वीकार तो करना ही पड़ेगा।
मानसिक शांति, शक्ति, स्थिरता
सच तो यह है कि हम बाहरी बदलावों को बदल नहीं सकते हैं, क्योंकि वे हमारे नियंत्रण में नहीं है, पर उनके प्रति हम अपने निजी दृष्टिकोण व भावनाओं में तो बदलाव ला सकते हैं, जो हमारे नियंत्रण में हैं! इससे हमें फायदा ही है। जब कोई भी स्थिति हमारे सामने आती है, वह या तो हमें आगे बढ़ाने या पीछे धकेलने अथवा बीच में स्थिर रखने के लिए आती है। हर स्थिति में उसे वह जैसी है, स्वीकार करने में ही हमारा लाभ है। क्योंकि बिना प्रतिक्रिया किए कोई भी बात, व्यक्ति व घटना को स्वीकार कर लेने से हमारी मानसिक शांति, शक्ति, स्थिरता और हमारा संतुलन कायम रहता है।
इससे हम गलत निर्णय लेने से बच जाते हैं। समझदारी इसमें है कि किसी भी प्रकार के परिवर्तन से हम मुंह न फिराएं, उसे एक साक्षी दृष्टा के रूप में देखें। उसके प्रवाह, आंतरिक शक्ति एवं उससे व्यक्ति, प्रकृति व पर्यावरण पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव को जानें, समझें, हानि व लाभ का हिसाब निकालें, तभी स्वीकार या अस्वीकार करने की निर्णय लें। यह स्वयं तथा दूसरों के लिए हितकारी हो सकता है।
इसके लिए हमें आध्यात्मिक ज्ञान व राजयोग ध्यान का नियमित अभ्यास करना होगा, ताकि बाहरी बदलाव को वहन व स्वीकार करने हेतु हमें शक्ति मिल सके। सहनशक्ति और बोध की शक्ति को हमें विकसित करना होगा। इन दो शक्तियों को अगर हम दैनिक जीवन में धारण करें, स्वरूप में लाएं अथवा समय पर कार्य में लगाएं तो हम परिवर्तन की अच्छाइयों से उपकृत होंगे तथा परिवर्तन के संकटों से निर्विघ्न व सुरक्षित रहेंगे। इन दोनों शक्तियों के आधार पर हम प्रत्येक परिवर्तन की महीन प्रक्रिया को परखने, समझने, सही निर्णय व श्रेष्ठ लाभ लेने हेतु भीतर और बाहर से समर्थ व सक्षम रहेंगे। साथ ही, जीवन में किसी न किसी नएपन को अपनाने की उमंग व उत्साह में रहेंगे।
सदा स्वतंत्र व शक्तिशाली होंगे
सहज राजयोग ध्यान से प्राप्त हुए आंतरिक शक्तियों के द्वारा हम सदा निर्विघ्न, निर्विकल्प और निर्मल रहेंगे। सदा स्वतंत्र व शक्तिशाली होंगे, किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बंधेंगे। सबसे बड़ी परतंत्रता व्यक्ति का देहाभिमान है, जिसके कारण व्यक्ति में नकारात्मक वृत्ति व दृष्टिकोण विकसित होते हैं। जिसके कारण वह किसी भी प्रकार के शुभ परिवर्तन व नएपन को स्वीकार नहीं कर पाता है। फलत: ऐसा व्यक्ति अकसर दुखी, अशांत, परेशान व तनावग्रस्त रहता है। इसके विपरीत, ध्यान के माध्यम से आत्मचिंतन व परमात्म स्मृति में रहने वाला व्यक्ति सदा स्वतंत्र होता है। दैहिक आकर्षण व प्रलोभन से परे रहता है।
परमात्मा की याद में रहने वाला आत्माभिमानी व्यक्ति अपने मन, बुद्धि, संस्कार व कर्मेंद्रियों को नियंत्रण में रखता है। वह उनके अधीन नहीं होता, बल्कि उनका मालिक बन अपनी श्रेष्ठ आत्मिक दृष्टि व वृत्ति से घर, परिवार, व्यवसाय और समाज की अस्वस्थ, अशक्त व असफल वातावरण को स्वस्थ, सफल व शक्तिशाली बना देता है। वह आने वाली हर परिस्थिति व परिवर्तन से जीवनोपयोगी बातें सीखता है।
ज्ञान और योग की शक्ति
ज्ञान और योग की शक्ति को विकसित करने के लिए हमें अपनी अंदर की बुराइयों को छोड़ना होगा अर्थात प्रभु को अर्पण करना होगा। हमारी विशेषताओं को मानवता के कल्याण की सेवा में सफल करना होगा, तभी हमारा आंतरिक व बाह्य वातावरण श्रेष्ठ व शक्तिशाली बनेगा। जहां वातावरण कमजोर होता है, वहां व्यक्ति के संकल्प, वृत्ति, भाषा वा भावनाएं भी शक्तिहीन होते हैं। उसकी भाषा होती है- यह तो चलता है, यह तो होता है...। इस भाषा को बदलने की आवश्यकता है। क्योंकि यह व्यवहार संकल्प में दृढ़ता लाने नहीं देता है और सफलता से दूर रखता है। जीवन में सही बदलाव लाने के लिए दृढ़ संकल्प आवश्यक है।
मन में संकल्प
अगर हम मन में संकल्प करते हैं कि हम अपने बेहतर संस्कारों से बेहतर संसार बनाने की ईश्वरीय सेवा के निमित्त है, तो इस दृढ़ संकल्प का सकारात्मक प्रभाव विश्व वातावरण पर पड़ेगा। जितना हम आत्मिक स्नेह व करुणा भरे संकल्पों से विश्वात्माओं की पालना करेंगे, उतनी हमारी श्रेष्ठ भावनाएं उन्हीं के पास पहुंचेंगी और मानव सेवा की यही सबसे मूल और सहज विधि है। विश्व सेवा के इसी रूप को हमें सफल व सार्थक करना है। शुभभावना व शुभकामना का प्रकाश देने का कर्म ही श्रेष्ठ व सहजयोग है।
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