एनआरसी पर शोर मचाने वाले पहले शरणार्थी और घुसपैठियों में फर्क तो समझें
असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) ने जिस विस्फोटक विवाद को जन्म दिया है उसके बारे में कुछ बातों को शुरू में ही समझना समझाना बेहद जरूरी है।
प्रो पुष्पेश पंत। असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) ने जिस विस्फोटक विवाद को जन्म दिया है उसके बारे में कुछ बातों को शुरू में ही समझना व समझाना बेहद जरूरी है। आज से कोई तीस बरस पहले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जो असम समझौता संपन्न किया, उसमें इस राज्य को यह आश्वासन दिया गया था कि घुसपैठियों से उसे मुक्त कराया जाएगा और इस काम में केंद्र अपनी (देश की एकताअखंडता को अक्षत रखने की) बुनियादी जिम्मेदारी निभाएगा। यह आश्वासन इसके पहले और बाद की कांग्रेस सरकारें भी देती रही हैं। अत: इस घड़ी संसद में पलटी खाना और ‘शरणार्थियों’ के मानवाधिकारों के लिए घड़ियाली आंसू बहाना देश के लिए नुकसानदेह मौकापरस्ती के अलावा कुछ नहीं। यही बात तृणमूल की ममता के बारे में भी पूरी तरह लागू होती है। असम समझौते से आज तक बहुत सारा पानी ब्रह्मपुत्र में बह चुका है। ममता सरीखे जो खुदगर्ज ख़ून की नदियां बहने की आशंका को मुखर कर संकट को विस्फोटक बना रहे हैं उन्हें ‘शरणार्थी’ और ‘घुसपैठियों’ का अंतर समझाना बेहद जरूरी है।
ममता में बदलाव
ममता जो अभी कल तक ‘अपने’ बंगाल की माटी और मानुस की अलग थलग हिफाजत के लिए कमर कसे थीं अचानक सारे भारत को एक परिवार की तरह मिलजुल कर रहने की सीख दे रही हैं। हकीकत यह है कि माकपा के राज में विदेशी बिन बुलाए मेहमानों को खदेड़ने की मांग कर संसद से तैश में इस्तीफा तक देने वाली दीदी की दादागिरी के तेवरोंं में इस वक्त फर्क हैं। कारण समझना कठिन नहीं- अब वह सत्ता में है और नाजायज घुसपैठियों के समर्थन से वह इस वोट बैंक को कब्जे में करने में कामयाब रही हैं। असमियों की चिंता अपनी सांस्कृतिक पहचान तथा पारंपरिक अस्मिता बरकरार रखने की है जिसे पूर्व बंगाल (आज के बांग्लादेश) से आने वाले आजादी और द्वितीय विश्व युद्ध के पहले से धुंधलाते रहे हैं। चाय बागानों, तेल उद्योग के लिए बाहर से मजदूरों के आयात ने भी इस प्रक्रिया को तेज किया। लेकिन समस्या पीढ़ियों से बसे स्थानीय जनता के साथ घुल मिल गए भारतवासियों की नहीं जिनके देशप्रेम में संदेह नहीं किया जाता।
ये है असल मुद्दा
आक्रोश उनको लेकर है जो पिछले चार- पांच दशकों में सरहद पार से दबे पांव पहुंचे हैं और जिन्होंने तत्कालीन अल्पसंख्यक तुष्टीकरण वाली सरकारों के संरक्षण का लाभ उठाते छल कपट से जमीन के पट्टे, राशन कार्ड, मतदाता परिचय पत्र हथिया लिए हैं। जो हिंसक मुठभेड़ें होती रही हैं, वह हिंदू मुसलमानों के बीच नहीं वरन विदेशी बंगाली- बांग्लादेशी मूल के बाहरियों और असम की बोडो और अन्य जनजातियों के बीच होती रही है। यह समझना कठिन नहीं कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू तो उत्पीड़न की शिकायत कर शरणार्थी होने का दावा कर सकते हैं पर क्या यही तर्क मुसलमान घुसपैठिए दे सकते हैं? राज्य और देश के सीमित संसाधनों पर पहला हक भारत के नागरिकों का है। साथ ही घुसपैठियों की बाढ़ के साथ असामाजिकआपराधिक तत्वों का दाखिल होना भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
क्या है सोच
विडंबना यह है कि वही उदार धर्मनिरपेक्ष तरक्की पसंद तबका जो जम्मू कश्मीर में काश्मीरियत और तमिलनाडु में द्रविड़ अस्मिता को सर्वोपरि घोषित करता है असम के मामले में चुप्पी साधना बेहतर समझता है। ऐसे ही दोहरे मानदंड तेलुगु, आंध्र या कर्नाटक के क्षेत्रीय उप राष्ट्रवाद के संदर्भ में देखे जा सकते है। लगभग चार दशक पहले भड़के छात्र आंदोलन ने असम की व्यथा को सुर्खियों तक पहुंचा दिया था। उसके बाद असम समझौते को लागू न करने की कांग्रेसी लाचारी ने ही बारूद का अंबार लगाया है। दुर्भाग्य से एनआरसी के पंजीकरण में कई जायज नाम छूट गए हैं। यह जिम्मेदारी केंद्र की है कि कोई भी न्याय संगत दावेदार नागरिकता से वंचित न हो। असम और बंगाल में निवासी अल्पसंख्यक समुदाय को आश्वस्त करना भी सरकार का कर्तव्य है, पर संवेदनशीलता के कवच का लाभ नाजायज घुसपैठियों को नहीं लेने दिया जा सकता।
(लेखक जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर हैं)
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