स्वतंत्रता के सारथी: अच्छी नौकरी छोड़ गांव लौटीं निशा, अब आदिवासियों के लिए लड़ रहीं लड़ाई
गुमला की निशा कुमारी भगत आदिवासी समाज के लिए सरना झंडा की लड़ाई लड़ रही हैं। उन्होंने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद नौकरी छोड़कर आदिवासी समाज की संस्कृति और सभ्यता को संरक्षित करने का संकल्प लिया। निशा आदिवासी समाज की रुढ़िवादी व्यवस्था में सुधार के लिए संघर्ष कर रही हैं और स्वशासन लागू करने की बात करती हैं ताकि जल जंगल जमीन सुरक्षित रहें।

जागरण संवाददाता, रांची। मैं आदिवासी हूं और अपने सरना झंडा की लड़ाई लड़ रही हूं। अपनी आवाज आदिवासी समाज तक पहुंचा रही हूं। यह उलगुलान मैं पहली बार नहीं कर रही हूं, बल्कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है।
वर्तमान में हम यह सोचने पर मजबूर हैं कि हमारा भविष्य क्या होगा। न हम हिंदू बन सकते हैं, न ईसाई, न मुसलमान और न ही सिख। हम तो सदियों से प्रकृति के पूजक रहे हैं।
मैं अपने आदिवासी समाज की अस्मिता की रक्षा के लिए प्रयासरत हूं। यह बातें गुमला जिले के डीएसपी रोड स्थित बड़ाईक मोहल्ला की निवासी निशा कुमारी भगत ने कहीं।
निशा ने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद दुर्गापुर से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की और बेंगलुरु में नौकरी भी की, लेकिन उनके पिता के आंदोलनकारी विचारों ने उनकी राह बदल दी और उन्होंने नौकरी छोड़कर आदिवासी समाज की संस्कृति और सभ्यता को संरक्षित करने का संकल्प लिया।
स्वतंत्रता के सारथी : निशा कुमारी भगत
सभ्यता-संस्कृति से छेड़छाड़ के खिलाफ छेड़ी जंग
सोशल एक्टिविस्ट निशा भगत आदिवासी समाज की रुढ़िवादी व्यवस्था में सुधार के लिए संघर्ष कर रही हैं। उन्होंने बताया कि विदेशी संस्कृति के लोग हमारी सभ्यता के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं, जिसे रोकने का प्रयास कर रही हूं।
उनका मानना है कि स्वशासन स्वत: लागू होना चाहिए, ताकि हमारे जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा सुरक्षित रह सकें।
आज निशा आदिवासी समाज को जागरूक कर रही हैं कि मिशनरी ने उन्हें दिग्भ्रमित किया है। आदिवासी समाज के लोगों को उनके उद्देश्य से भटकाया गया है और उन्हें प्रलोभन दिया गया है।
वे संविधान की जानकारी से वंचित हैं और शिक्षित नहीं हैं। विशेषकर, वे आदिवासी लोग, जो ईसाई धर्म अपना चुके हैं, उन्हें उनके अधिकारों से अवगत नहीं कराया जा रहा है।
आंदोलनकारी पिता से मिली प्रेरणा
निशा ने बताया कि उनके पिता, हन्दू भगत, एक आंदोलनकारी थे और उन्होंने हमेशा आदिवासी समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
जब उनके पिता आदिवासी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए लड़ रहे थे, तब उनका घर जला दिया गया। उन्हें जो शिक्षा मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली।
उन्होंने क्रिश्चियन स्कूल में पढ़ाई की, जहां कई लोगों ने उन पर दबाव डाला कि वे भी ईसाई धर्म अपना लें। धर्मांतरित लोगों ने उनके पूरे परिवार को मानसिक रूप से परेशान किया।
निशा भगत का यह संघर्ष न केवल उनके व्यक्तिगत अनुभवों का परिणाम है, बल्कि यह आदिवासी समाज की एक बड़ी लड़ाई का प्रतीक है, जो अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्षरत है।
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