अहं के शोर में छिटके ओबीसी के मुद्दे
यह कांग्रेस में कलह की मुख्य पटकथा से हटकर एक अंतर्कथा है जिसके संदर्भ अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के साथ जुड़़ते है। ये संदर्भ नगरोटा से लेकर जवाली तक हैं।
प्रसंगवश/नवनीत शर्मा
यह कांग्रेस में कलह की मुख्य पटकथा से हटकर एक अंतर्कथा है जिसके संदर्भ एक महत्वपूर्ण वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के साथ जुड़ते है। ये संदर्भ नगरोटा से लेकर जवाली तक है और जाहिर है, इसमें कांगड़ा भी है। चौधरी हरिराम, सरवण कुमार, राम चंद भाटिया, राम रत्न पटाकू, विद्यासागर जैसे चर्चित नाम इसी वर्ग से आए है। मार्क जुकरबर्ग उन दिनों होते और फेसबुक ले आए होते तो सभवत: जो तीर अब देखने को मिल रहे है वही तब भी मिलते लेकिन तब की राजनीति शालीन थी।
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अब अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ इस वर्ग के कई नेता अपनों को ही निशाने पर लिए हुए है। बेशक, इस वर्ग के लोगों ने न्यायपालिका, खेल, राजनीति, समाज सेवा, वकालत, प्रशासनिक सेवाओं में नाम कमाया लेकिन एक बड़ा वर्ग अब भी बरसात मे धान के पौधे को जड़े देता है, आलू के आकार के प्रति चौकस रहता है, मिट्टी और मेहनत से जुड़ा है। लेकिन इस बार का प्रकरण कांग्रेस के भीतर है जहां ओबीसी के चहेते गैर ओबीसी मगर विजेता रहते आए मंत्री और एक ओबीसी घराने के बीच ओबीसी हित पर शब्दों की तलवारें खिंची हुई है। फेसबुक पर गालियों के सिवा सब कुछ चल रहा है और शांता कुमार को हराने की क्षमता रखने वाला यह खास वर्ग अपने ही निशाने पर है। सियासत का पहला लक्षण यह होता है कि यह मोहब्बत करने वालों में झगड़ा डाल देती है और सियासत की ही यह प्रकृति है कि यह दोस्ती की जड़ मे मट्ठा डाल देती है।
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इस प्रकरण मे एक कड़ी है कांगड़ा के ऐसे विधायक जो दो अन्य ओबीसी प्रत्याशियों के खिलाफ जनादेश लेकर विधानसभा पहुंचे और क्योंकि आजाद थे, इसलिए अपने क्षेत्र के काम निकलवाने के लिए कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन गए। ओबीसी हित पर बोलने लगे तो कई बादल घिर आए। लेकिन सियासत देखिए कि जिस व्यक्ति ने रिकॉर्ड समय मे बतौर ठेकेदार तपोवन में प्रदेश का दूसरा विधानसभा भवन तैयार कर दिया, वही अपने इस कार्यकाल मे बतौर विधायक कांगड़ा शहर को पानी-पानी होने से न रोक सका। विधायक महोदय की गाड़ी भी फंसती होगी पुराने बस स्टैंड के उस पानी में जो किसी रसूखदार की वजह से शहर के जनजीवन पर फैल जाता है।
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ओबीसी की अपेक्षा क्या है, ओबीसी चाहते क्या है, इसे संबोधित करने के बजाय फेसबुक पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास हो रहे है। भाषा पानी मांग रही है, सभ्यता का व्याकरण दम तोड़ चुका है। दोनों ओर कुछ लोग है जो एक दूसरे के घर जाकर जवाब देने के दावे कर रहे है, लेकिन बनेर खड्ड के पास सब्जी उगाने वाले को सब्जी आधारित उद्योग कौन देगा, आलू कब उचित दामों पर बिकेगे, आरक्षण होने के बावजूद हजारों हाथ अब भी बेरोजगार क्यों है, उनके लिए स्वरोजगार के रास्तें कौन खोलेगा, इन सवालों के जवाब कोई नहीं दे रहा।
इन क्षेत्रो को न्यूयॉर्क बेशक न बनाएं पर सड़कें तो सड़कों की तरह लगे। यह भी पता किया जाए कि नौकरी का बैकलॉग कितना है। अगर यह ओबीसी की कलगी की लड़ाई है तो भी जिसने कलगी सौंपनी है, यानी जनता के मत का इंतजार किया जाना चाहिए। ओबीसी को अपरिपक्व या आसानी से लुभा लेने वाला समझने की भूल करने वाले अपनी शमशीरे भले ही चमका ले, ओबीसी का दिल उसी दिन पढ़ पाएगे जिस दिन विधानसभा चुनाव के नतीजे निकलेंगे। ओबीसी पर राज करना और बात है, उसकी अपेक्षाओं को समझना और है। इस वर्ग का दलाई लामा बनने की चाह है तो दलाई लामा जैसा होना होगा।
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