Joram Review: सरवाइवल ड्रामा में मनोज बाजपेयी की अदाकारी का नया आयाम, इमोशनल करती है 'जोरम' की कहानी
Joram Review जोरम शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। यह सरवाइवल ड्रामा फिल्म है जिसमें मनोज बाजपेयी एक आदिवासी दसरू के रोल में हैं। दसरू अपनी तीन महीने की बच्ची को गोद लेकर पुलिस से भाग रहा है। उस पर कुछ गंभीर आरोप भी लगाये गये हैं। मोहम्मद जीशान अय्यूब पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में हैं जो दसरू के पीछे है।
प्रियंका सिंह, मुंबई। बड़े बजट की एनिमल और सैम बहादुर फिल्मों की रिलीज के एक हफ्ते बाद जोरम सिनेमाघरों में शुक्रवार को प्रदर्शित हो रही है। मनोज बाजपेयी अभिनीत इस फिल्म को कई फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली है।
फिल्म का निर्देशन और लेखन देवाशीष मखीजा ने किया है, जिनकी पिछली फिल्म भोंसले के लिए मनोज बाजपेयी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
क्या है जोरम की कहानी?
कहानी शुरू होती है झारखंड के झिनपीड़ी गांव में रहने वाले आदिवासी दंपती दसरू (मनोज बाजपेयी) और वानो (तनिष्ठा चटर्जी) के साथ। वानो झूले पर बैठकर आदिवासी लोकगीत गा रही है। फिर सन्नाटा छा जाता है और कहानी सीधे मुंबई आ जाती है। जहां एक कंस्ट्रक्शन साइट पर दोनों मजदूरी कर रहे हैं।
उनकी तीन महीने की बच्ची जोरम भी है। आदिवासी विधायक फूलो करमा (स्मिता तांबे) साइट पर साड़ी और सोलर लाइट बांटने के बहाने आती है। वह दसरू की खोज में है, क्योंकि उसे वह अपने बेटे की हत्या का जिम्मेदार मानती है। उस रात वानो की हत्या हो जाती है।
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दसरू अपनी बच्ची को लेकर वहां से भाग निकलता है। मुंबई पुलिस में सीनियर इंस्पेक्टर रत्नाकर बगुल (मोहम्मद जीशान अय्यूब) को उसे पकड़ने का काम सौंपा जाता है। दसरू अपने गांव पहुंचता है। रत्नाकर को भी उसकी तलाश में झारखंड भेजा जाता है। दसरू कभी माओवादियों से जुड़ा था।
मजबूरी में बंदूक उठाना उसे पसंद नहीं आया, इसलिए वह भागकर मुंबई आ गया था। अब दसरू कैसे अपनी बच्ची को बचाएगा? जिनसे मदद मांगने वह गांव पहुंचा है, क्या वही उसके दुश्मन हैं? ऐसे कई सवालों से गुजरते हुए फिल्म अंत तक पहुंचती है।
कैसा है फिल्म का स्क्रीनप्ले?
देवाशीष की पिछली फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी कहानी के बीच कुछ अहम मुद्दे हैं। पिता-बेटी की सर्वाइवल स्टोरी के बीच विकास के नाम पर आदिवासियों को उनकी जमीन से हटाना, जंगल नष्ट कर देना, अपनी जमीन पैसे के लिए बेच देने वाले आदिवासियों पर माओवादियों का जुल्म करना, जैसे कई मुद्दों को छूते हुए कहानी बढ़ती है।
इस कहानी की खास बात यह है कि देवाशीष ने कम समय में सीमा के भीतर इसे प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने संवाद कम रखे हैं। बैकग्राउंड स्कोर और प्रतिभाशाली कलाकारों के चेहरे के भावों का प्रयोग ज्यादा किया है। फिल्म का अंत इसे वास्तविकता के करीब रखता है, जहां सिस्टम से लड़ना इतना आसान नहीं कि हैप्पी एडिंग हो।
अपनी पिछली फिल्मों से इतर देवाशीष ने इसे कमर्शियल जोन में रखने का प्रयास जरूर किया है। फिल्म का कमजोर पक्ष है, कुछ पात्र जिनका कोई चेहरा नहीं है, केवल नाम हैं। ऐसे में उनका जिक्र कन्फ्यूजन पैदा करता है। कहानी में मुंबई पुलिस का लंबी शिफ्ट का मुद्दा जरूरी नहीं लगता।
रत्नाकर की अनजान दसरू के लिए सहानुभूति भी समझ नहीं आती है। सिनेमैटोग्राफर पीयूष पुती का काम सराहनीय है, उन्होंने हर दृश्य को संजीदगी से कैमरे में कैद किया है। फिल्म में एक दृश्य है, जब दसरू गांव लौटता है, जंगल कट चुके होते हैं, वह दृश्य जंगलों के शमशान जैसा लगता है, जो झकझोरता है।
जमीन नहीं देंगे, गांव नहीं देंगे हमारा... गाना आदिवासियों का दर्द दिखाता है। दसरू का अपनी तीन महीने के बेटी से बात करते हुए अपने गांव के बारे में बताना कि यहां जंगल और तालाब हुआ करता था, ना केवल उसका अकेलापन दर्शाता है, बल्कि अपनी विकास की आड़ में पहचान खोते गांवों की झलक दिखाता है।
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कैसा है कलाकारों का अभिनय?
अभिनेता मनोज बाजपेयी यकीन दिला देते हैं कि वह आदिवासी ही हैं, जो अपने परिवार की सुरक्षा के लिए केवल सह सकता है, लड़ नहीं सकता। तीन महीने की बच्ची को गोद में लेकर भागना, उसे खाना खिलाते, पानी पिलाते हुए वह उस असहाय पिता और व्यक्ति की झलक दिखाते हैं, जिसकी कोई नहीं सुनता।
मोहम्मद जीशान अय्यूब साबित करते हैं कि उन्हें किसी भी परिस्थिति में डालकर बेहतरीन काम करवाया जा सकता है। बेटे की मौत का बदला लेने के लिए गुस्सैल मां और विधायक के रोल में स्मिता तांबे प्रभावित करती हैं। तनीष्ठा चटर्जी फिल्म में मेहमान भूमिका में अपनी छाप छोड़ती हैं।
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