Homebound Review: समाज को आईना दिखाती होमबाउंड, दिल को छूती है फिल्म की कहानी
Homebound Movie Review ईशान खट्टर विशाल जेठवा और जाह्नवी कपूर (Janhvi Kapoor) स्टारर फिल्म होमबाउंड जल्द ही भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज की जाएगी। इस मूवी का रिव्यू सामने आ गया है जो ये बताता है कि फिल्म की कहानी समाज को आईना दिखाने वाली और दिल को छूने वाली है।

एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। बदन पर वर्दी दिखती है न तो सीने पर लिखा नाम नहीं पढ़ता कोई। एक बार हम सिपाही बन गए न तो ..किसी के बाप में हिम्मत नहीं होगी हमें गरियाने की। नीरज घेवन निर्देशित फिल्म होमबाउंड (Homebound) में यह परस्पर संवाद नहीं है।
सिर्फ तालियां बटोरने के लिए की गई डॉयलागबाजी नहीं है। फिल्म की शुरुआत में इसके नायक शोएब (ईशान खट्टर) और दलित चंदन (विशाल जेठवा) के बीच की वार्ता है। इस वार्तालाप में ही होमबाउंड का मर्म है।
क्या है होमबाउंड की कहानी?
मापुर नामक सुदूर गांव में जातिवाद और भेदभाव की त्रासदी से त्रस्त चंदन कुमार, मोहम्मद शोएब पुलिस भर्ती की परीक्षा के लिए रेलवे स्टेशन आते हैं। वहीं उनकी मुलाकात सुधा भारती (जाह्नवी कपूर) से होती है। अंबेडकरवादी सुधा अपनी गरिमा के लिए लड़ने के साथ अपने पूरे समुदाय को ऊपर उठाना चाहती हैं। उसका मानना है कि शिक्षा ही इसका एकमात्र रास्ता है।
फोटो क्रेडिट- एक्स
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वहीं शोएब और चंदन को पुलिस में भर्ती होना सम्मान और समानता प्राप्ति का अवसर जैसा लगता है। प्रदेश पुलिस में कांस्टेबल की परीक्षा में चंदन पास हो जाता है, लेकिन शोएब नहीं। इसका असर उनकी दोस्ती पर भी पड़ता है। उसमें दरार आती है। फिर पता चलता है कि भर्ती परीक्षा के परिणाम पर रोक लग गई है। इस बीच सुधा और चंदन की नजदीकियां बढ़ती है और हालात मोड़ लेते हैं।
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पारिवारिक और आर्थिक कारणों से दोनों सूरत में कपड़ों की मिल में नौकरी करने जाते हैं। फिर कोरोना का प्रकोप आता है। लाकडाउन लग जाता है। दोनों के लिए घर से दूर जीविकोपार्जन करना कठिन हो जाता है। सामाजिक उत्पीड़न, सांप्रदायिक घृणा और गरीबी के भारी बोझ को पार करते हुए क्या दोनों घर लौट पाएंगे? कहानी इस संबंध में हैं।
ऑस्कर में हुई है एंट्री
अगले साल ऑस्कर में अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुनी गई होमबाउंड को प्रतिष्ठित कान फिल्म फेस्टिवल और टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में काफी सराहना मिल चुकी है। यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, जिसका जिक्र मूल रूप से 2020 के न्यूयार्क टाइम्स के आलेख में बशारत पीर ने टेकिंग अमृत होम में किया था।
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मसान की रिलीज के करीब एक दशक बाद नीरज घेवन ने फीचर फिल्म का निर्देशन किया है। नीरज और सुमित राय द्वारा लिखित कहानी जातिवाद, सामाजिक और धार्मिक भेदभाव का बारीकी से चित्रण करती है। नीरज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इतने नाजुक विषय को बहुत ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ गढ़ा है। वह शुरुआत में ही अपने पात्रों के दर्द और छटपटाहट को बयां करते हैं। फिर आहिस्ता से उनकी दुनिया में ले जाते हैं।
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सिनेमेटोग्राफर प्रतीक शाह का कैमरा पात्रों की जिंदगी को गहराई से दर्शाने में मदद करता है। उसमें चंदन की मां को विरासत में मिली फटी और नुकीली एडि़यां हो, या बहन को शिक्षा से वंचित रखना ताकि चंदन पढ़ाई कर सके या शोएब से एचआर मैनेजर का यह कहना कि वो उसकी बोतल न भरे जैसे दृश्य झकझोर देते हैं। वहीं नीरज घेवन, वरूण ग्रोवर और श्रीधर दुबे के लिखे संवाद उसे ठोस आधार देते हैं।
संदेश देती है होमबाउंड
फिल्म दोस्ती के साथ उसके मायने भी दिखा जाती है। घर वापसी की कोशिश के समय शोएब पर पुलिस की बर्बरता के बीच चंदन का खुद का नाम बदलकर बताना जैसे दृश्य दोस्ती की मिसाल दिखाते हैं। वहीं ईद पर शोएब के घर में दोनों परिवारों का साथ में बिरयानी खाने का दृश्य सांस्कृतिक झलक देते हैं।
फिल्म कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की मजबूरियों, आर्थिक दिक्कतों के साथ घर वापसी की राह में आने वाले सामाजिक और धार्मिक अड़चनों का भी बारीकी से विश्लेषण करती हैं। फिल्म में कई ऐसे पल आते हैं जो आपको सोचने पर मजबूर करते हैं, आपका गला रुंध जाता है।
भावनाओं के ज्वार में बहाने की नीरज की सोच को आकार देने में ईशान खट्टर और विशाल जेठवा का अतुलनीय योगदान रहा। दोनों ने अपने किरदारों की मनःस्थिति, द्वंद्व, और संघर्ष को पूरी शिद्दत से जीया है। वह हर दृश्य में अपने अभिनय से प्रभाव छोड़ते हैं। जाह्नवी कपूर भी सीमित स्क्रीनटाइम में अपना प्रभाव छोड़ती हैं। सहयोगी कलाकारों की भूमिका में आए पात्र भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं।
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